अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याओं की विवेचना कीजिये। What are the central problems of the economy?


हम सभी जानते हैं कि मनुष्य की आवश्यकताएं असीमित हैं किंतु अर्थव्यवस्था में उत्पत्ति के साधन सीमित मात्रा में होते हैं। वस्तुतः ऐसी केंद्रीय समस्याओं से निपटने के लिए प्रत्येक अर्थव्यवस्था को सभी के लिए कुछ आधारभूत कार्य करने होते है। इन कार्यों को प्रत्येक अर्थव्यवस्था में क्रियान्वित करने के तरीके भले ही अलग अलग हो सकते हैं। किन्तु आवश्यकताओं और साधनों के बीच समन्वय करना ही प्रत्येक अर्थव्यवस्था का प्रयास रहता है।



Central problems of economy in hindi

चूकि प्रत्येक अर्थव्यवस्था में निश्चित रूप से साधनों की कमी पायी जाती है। और सभी देशों में प्रायः प्रायः इस प्रकार की समस्या पायी जाती है। साधनों की सीमितता ही समस्त आर्थिक समस्याओं की जननी है। अनंत आवश्यकताएं ही केंद्रीय समस्याओं की उत्पत्ति का कारण होती हैं।

प्रत्येक अर्थव्यवस्था चाहे वह पूँजीवादी हो, समाजवादी हो या मिश्रित हो। विकसित हो या अल्पविकसित ही क्यूँ न हो। सभी में इस तरह की आधारभूत समस्याएं पायी जाती हैं। और प्रत्येक अर्थव्यवस्था को इस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। तथा इनके समाधान के लिए प्रयास भी करना होता है। एक तरह से ये समस्यायें किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए रीड की हड्डी की तरह मानी जाती हैं। इसीलिए इन समस्याओं को अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्यायें कहा जाता है।

सीमितता से उत्पन्न इस आर्थिक समस्या का जब गहन अध्ययन किया जाता है तब इसके कई रूप सामने आते हैं। जैसे- भूमि, श्रम, पूँजी व साहस आदि की सीमित मात्रा से आय, उत्पादन, रोज़गार आदि अनेक समस्याओं को हल करने की चुनौती होती है। अर्थव्यवस्था को यह निर्धारित करना होता है कि सीमित साधनों से समाज की किन आवश्यकताओं को पहले पूरा किया जाए और किन आवश्यकताओं को बाद में। उसी के अनुरूप वस्तुओं तथा सेवाओं का चयन और उत्पादन करना होता है। सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी भी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं के चुनाव की समस्या ही आधारभूत समस्या होती हैं। 


अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएँ (Central problems of economy in hindi)

एक अर्थव्यवस्था की केन्द्रीय समस्याएँ निम्नलिखित होती हैं-

1. किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाए
प्रत्येक अर्थव्यवस्था के सामने यही प्रमुख समस्या होती है कि वह सीमित साधनों से किन-किन वस्तुओं का और कितनी मात्रा में उत्पादन करे। समाज में लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति किस क्रम में करे यह एक बड़ी समस्या होती है। क्योँकि उसे निम्न के बीच चुनाव करना होता है जैसे-

* उपभोक्ता वस्तुओं (जैसे- गेहूँ, चावल, कपड़ा, चाय चीनी आदि) और पूँजीगत वस्तुओं (जैसे- मशीन-यंत्र, औजार, खाद, ट्रेक्टर आदि) के बीच चुनाव।

* नागरिक वस्तुओं (जैसे- कपड़ा, जूते, घड़ी, रेडियो, मशीन आदि) और सैनिक वस्तुओं (जैसे-  बन्दूकें, मशीनगन, लड़ाकू विमान आदि) के बीच चुनाव।

* अनिवार्य वस्तुओं (जैसे- रोटी, कपड़ा, मकान आदि) और विलासिता की वस्तुओं (जैसे- रेफ्रिजरेटर, रंगीन, मोबाइल, मोटरसाइकिल, कार, टी.वी. आदि) के बीच चुनाव।

* निजी वस्तुओं (जैसे- व्यक्तिगत मकान, फ़ैक्ट्री, रेडियो, टी.वी. आदि) और सार्वजनिक वस्तुओं (जैसे- स्कूल, पार्क, सड़क, अस्पताल आदि) के बीच चुनाव।

उक्त वस्तुओं के चयन के आधार पर ही एक देश को निर्णय करना होता है कि किन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कितनी मात्रा में किया जाए जिससे समाज मे लोगों की आवश्यकताओं की अधिकतम संतुष्टि की जा सके। समाज की अधिकतम आवश्यकताओं की संतुष्टि को ध्यान में रखते हुए अर्थव्यवस्था को सदैव ही यह निर्णय लेना होता है कि उपभोक्ता वस्तुओं, पूँजीगत वस्तुओं, दैनिक वस्तुओं, सैनिक वस्तुओं, अनिवार्य एवं विलासिता की वस्तुओं में से प्रत्येक की कितनी मात्राओं का उत्पादन किया जाए।

2. उत्पादन किस प्रकार किया जाए-
वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन का ढंग क्या हो! यह प्रमुख समस्या प्रत्येक अर्थव्यवस्था के सामने होती है। यह एक तकनीकी समस्या है जिसका अर्थ है कि उत्पादन का ढांचा कैसा हो? उत्पादन को पूँजी-प्रधान और श्रम-प्रधान रीति में से कौन सी रीति अपनायी जाए, यह उत्पादन के साधनों की पूर्ति, तथा उनके सापेक्षिक मूल्यों पर निर्भर करता है। यदि अर्थव्यवस्था में श्रम अधिक है तथा मज़दूरी की दरें नीची हैं तो श्रम प्रधान रीति का चुनाव कर सकते हैं। इसके विपरीत यदि श्रम की मात्रा कम है तथा मज़दूरी की दरें ऊंची हैं तब पूँजी प्रधान तकनीक को अपनाया जा सकता है। 
               
नियोजित अर्थव्यवस्था में निर्णय लेते समय साधनों के सापेक्षिक मूल्यों के अतिरिक्त नियोजन के उद्देश्यों को भी ध्यान में रखना होता है। चूंकि उत्पादन के साधन सीमित होते हैं, अतः उन्हें प्राथमिकता के आधार पर उपभोक्ता वस्तु उद्योगों तथा पूँजीगत वस्तु उद्योगों में बाँटने की समस्या होती है। अर्थात साधनों को उन उद्योगों में से किस प्रकार वितरित किया जाए जिनकी समाज को सर्वाधिक आवश्यकता होती है। तथा साधनों को उन उद्योगों में जाने से कैसे रोका जाए, जिनके उत्पादनों की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती है।

3. उत्पादन किन लोगों के लिए किया जाए-
अर्थव्यवस्था की यह समस्या उत्पादन के वितरण संबंधी होती है जैसे कि उत्पादित वस्तुएँ किस प्रकार उपभोक्ताओं के बीच पहुँचायी जाए। यह समस्या किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही जटिल भी है। क्योंकि यह समस्या 'उत्पादन किसके लिए किया जाए?' से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है कि किस प्रकार वितरण किया जाए। इस प्रकार यह समस्या केवल अर्थशास्त्र की ही नहीं, बल्कि राजनीतिशास्त्र तथा नीतिशास्त्र से संबंधित हो जाती हैं। इसके अलावा सरकार की आर्थिक नीतियां भी वितरण को प्रभावित करती हैं। 

प्रत्येक अर्थव्यवस्था को उत्पादित वस्तुओं के वितरण में निम्न बातों का ध्यान रखना पड़ता है-

(1) उत्पादन की कुल मात्रा को व्यक्तियों, परिवारों, व्यापारियों, उत्पादकों तथा सरकार के मध्य किस प्रकार वितरित किया जाए, जिससे समाज के लोगों की अधिकतम आवश्यकताओं की संतुष्टि की जा सके।

(2) उत्पादित वस्तुओं का वितरण इस प्रकार किया जाए कि, वितरण करते समय सामाजिक न्याय का भलीभांति पालन किया जा सके ताकि समाज मे किसी के साथ भी अन्याय न हो।

(3) अल्पकालीन अवस्था में (अति अल्पकाल) में वस्तुओं के वितरण के लिए राशनिंग की व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके। क्योंकि अति अल्पकाल में वस्तुओं की पूर्ति लगभग स्थिर होती है।

सामान्यतया देश मे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था (प्रणाली) के अंतर्गत वितरण प्रणाली कठिनाइयाँ पैदा करती हैं। क्योंकि इस प्रणाली में वितरण व्यवस्था क़ीमत प्रणाली या बाज़ार तन्त्र द्वारा संचालित होती हैं। अर्थात वस्तुओं का वितरण व्यक्तियों के वर्ग तथा आय के स्तर पर निर्भर करता है। जो कि माँग को प्रभावित करती है। जिनकी आय अधिक है उनकी माँग सम्पूर्ण उत्पादन को अधिक प्रभावित करेगी।

परिणाम स्वरूप ऐसी स्थिति में विलासिता और आरामदायक वस्तुओं का उत्पादन अधिक किया जाएगा क्योंकि सम्पन लोगों द्वारा इस तरह की वस्तुओं की माँग अधिक होती है। अधिक आय वाले लोग आवश्यकतानुसार अधिक वस्तुओं का क्रय करके अधिक संतुष्टि करेंगे। किन्तु इसके विपरीत अधिकांश लोग कम आय के कारण अपनी प्राथमिक आवश्यकताएं भी पूरी नही कर सकेंगे। वितरण की यह व्यवस्था सामाजिक असमानताओं को जन्म देती है।

किन्तु इसके विपरीत समाजवादी अर्थव्यवस्था (प्रणाली) के अंतर्गत वितरण की समस्या उतनी जटिल आकार नहीं ले पाती, क्योंकि सरकार के हस्तक्षेप द्वारा वितरण की असमानताओं को दूर करने का भरसक प्रयास किया जाता है।

4. संसाधनों का कुशलतम उपयोग कैसे हो- 
संसाधनों के पूर्ण उपयोग के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि उनका प्रयोग कुशलतम ढंग हो। संसाधनों के सफलतम प्रयोग की समस्या प्रत्येक अर्थव्यवस्था के सामने होती है। अतः इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी हो जाता है कि उत्पादन का कोई भी साधन बेकार न रहे तथा सभी संसाधनों का पूर्ण रुप से उपयोग हो सके।

यदि कुछ साधन अव्यवहारिक रह जाते हैं तो उत्पादन में गिरावट आ जाती है फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में  बेरोज़गारी की कठिन समस्या उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए-  भूमि, श्रम तथा पूंजी का सदुपयोग, सही मायने में आवश्यकतानुसार नही होता। 
यदि सभी संसाधनों को पूर्ण रोज़गार मिल जाये तो केवल अन्य वस्तु की कुछ मात्रा का त्याग करके किसी वस्तु की मात्रा में वृद्धि की जा सकती है। और ऐसा तभी हो सकता है जब संसाधनों का पूर्ण कुशलता से प्रयोग हो। किन्तु ऐसा होता नहीं है।

साधनों के पूर्ण एवं कुशलतम उपयोग के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक होता है-
(1) अर्थव्यवस्था को यह निर्धारित करना पड़ता है कि वह उपलब्ध साधनों में से कितने साधनों के प्रयोग से वर्तमान में हो रहे उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन करे तथा कितने साधनों से पूँजीगत वस्तुओं का निर्माण करे।
(2) साधनों के प्रयोग के संबंध में यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि निर्धारित प्रयोग स्तर से कम उत्पादन पर अनैच्छिक बेरोज़गारी की की स्थिति निर्मित न हो। जो कि एक बड़ी समस्या है।
(3) सामान्यतः उत्पादन में वृद्धि करना अत्यंत ही आवश्यक हो जाता है यदि पूर्ण रोज़गार की स्थिति निर्मित करना हो। और उत्पादन तभी बढ़ाया जा सकता है जब पूँजी निवेश आवश्यक रूप से किया जाए। बचत में भी निश्चित रूप से वृद्धि की जाए।और इसके लिए मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति का प्रयोग करना चाहिए।

5. पूर्ण रोज़गार की स्थिति कैसे निर्मित हो- 
किसी भी अर्थव्यवस्था का प्रमुख कार्य या कर्तव्य यही होता है कि वह अधिक से अधिक साधनों को रोज़गार उपलब्ध करा सके। अधिकतर यही देखा गया है कि साधनों की सीमितता तथा आवश्यकताओं की असीमितता के चलते उत्पादन के साधन प्रायः बेरोज़गार रह जाते हैं। उनका सही-सही प्रयोग नही हो पाता।

    उदाहरण के लिए- 'आजकल समाज मे अधिक शिक्षित होने पर भी लोग बेरोज़गार रह जाते है। तो वहीं पर्याप्त कृषि भूमि होने पर भी कृषि का पूर्ण औए कुशलतम उपयोग नहीं हो पाता। श्रम शक्ति में काफी लोग बेकार रह जाते हैं, मशीनों की क्षमता होने पर भी उसका ओरण उपयोग नही हो पाता।  वास्तव में किसी भी अर्थव्यवस्था में साधनों का इस प्रकार बेरोज़गार रह जाना एक अत्यंत ही असंगत स्थिति है। अतः अर्थव्यवस्था कैसी भी हो उसे पूर्ण रोज़गार के स्तर को प्राप्त करने का सदैव प्रयास करना चाहिए। और यही प्रमुख कर्तव्य भी है।

6. आर्थिक विकास की प्रक्रिया कैसे तेज़ हो-
प्रत्येक अर्थव्यवस्था चाहे वह पूँजीवादी, समाजवादी या मिश्रित अर्थव्यवस्था हो। उसे यह निर्धारित करना होता है कि उसकी अर्थव्यवस्था का विकास कैसे हो, साधनों का अनुरक्षण किस प्रकार किया जाए, उत्पादन के साधनों को किस प्रकार लोचपूर्ण बनाया जाए। आर्थिक विकास हेतु आर्थिक संसाधनों में वृद्धि, नई नई तकनीकों का विकास, उद्योगों को बढ़ावा तथा साथ ही श्रम की कार्यक्षमता का विकास करना आवश्यक होता है।

अनुरक्षण अर्थात प्रतिवर्ष अर्थव्यवस्था में मूल्यह्रास होने पर, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उससे अधिक पूँजी का निवेश किया जाना, जिससे उत्पादन क्षमता कम होने के बजाए उसमे वृद्धि की जा सके। लोचपूर्ण का अर्थ यह है जब भी उपभोक्ता की रुचि, साधनों की पूर्ति तथा तकनीकी में परिवर्तन हो तो अर्थव्यवस्था इन परिवर्तनों के अनुसार सामंजस्य स्थापित कर सके।

उपरोक्त अंक में हमने अर्थव्यवस्था से संबंधित उनकी केंद्रीय समस्याओं के विषय मे विस्तार पूर्वक जाना। आगे यह जानेंगे कि "विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में केंद्रीय समस्याओं के हल" क्या हो सकते हैं? केे अंतर्गत हम उन समाधानों के विषय में जानेंगे जो कि किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास में आने वाली समस्याओं से निपटने के लिए अत्यंत आवश्यक हो सकते हैं।
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