उत्पादन किसे कहते हैं? (उत्पादन का अर्थ एवं परिभाषा, उत्पादन की विशेषताएं, महत्व, प्रकार एवं कारक), Meaning and definition of production in hindi, Importance of production in hindi, Characteristics of production in hindi
उत्पादन से तात्पर्य किसी वस्तु या सेवा के निर्माण की प्रक्रिया से है, जिसमें कच्चे माल, श्रम, पूंजी, भूमि और तकनीक का उपयोग करके उपयोगी वस्तुएँ या सेवाएँ तैयार की जाती हैं। उत्पादन का मुख्य उद्देश्य (utpadan ka uddeshya) उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति करना और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना होता है।
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उत्पादन का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं एवं महत्व |
उदाहरण के लिए, एक कार कंपनी जब उत्पादन के साधनों की मदद से कार का निर्माण करती है तो यह उत्पादन (Production) है। एक व्यापारी द्वारा किसी वस्तु की बिक्री भी उत्पादन है। जब व्यापारी एक वस्तु को 4 रु. में ख़रीदकर 5 रु. में बेचता है तब वह एक रुपये का मूल्य सृजित करता है। अतः यह भी उत्पादन (utpadan) है।
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संक्षेप में समझा जाए तो जिस वस्तु का उत्पादन किया जाता है उसे उत्पाद कहते हैं तथा जिन साधनों के संयोग से उत्पादन किया जाता है उसे इनपुट कहते हैं। इनपुट तथा उत्पाद का संबंध उत्पादन फलन कहा जाता है। अल्पकाल में उत्पादन के कुछ साधन स्थिर एवं कुछ परिवर्तनशील हो सकते हैं। तो वहीं दीर्घकाल में उत्पादन के सभी साधन परिवर्तनशील हो सकते हैं।
इसी आधार पर अल्पकाल में उत्पादन के नियम एवं दीर्घकाल में पैमाने के प्रतिफल की रचना की गई है। वर्तमान में अर्थशास्त्रियों ने इसी आधार पर अनुपातों के नियमों की व्याख्या की है।
उत्पादन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Production)
साधारण भाषा में उत्पादन का अर्थ (Utpadan ka arth) किसी वस्तु के निर्माण से लगाया जाता है, किन्तु विज्ञान हमें बताता है कि मनुष्य पदार्थ को न तो बना सकता है और न ही नष्ट कर सकता है, वह सिर्फ़ उसका रूप परिवर्तित कर सकता है।
उदाहरणार्थ, एक बढ़ई जब मेज-कुर्सी बनाता है तो वह लकड़ी का रूप परिवर्तित करके उसे और अधिक उपयोगी बना देता है। अतः मनुष्य किसी नये पदार्थ का निर्माण नहीं करता है, वरन् प्रकृतिदत्त पदार्थों को अपनी बुद्धि, योग्यता व चातुर्य से ऐसा रूप प्रदान करता है कि वस्तुओं में पहले से अधिक उपयोगिता उत्पन्न की जा सके।
अर्थशास्त्र में भी उत्पादन से तात्पर्य (Utpadan se tatparya) पदार्थ के निर्माण से नहीं है, बल्कि वस्तु का स्वरूप बदल कर उसमें उपयोगिता के सृजन करने से है।
मार्शल के अनुसार, "व्यक्ति भौतिक पदार्थों का निर्माण नहीं कर सकता है, मानसिक एवं नैतिक क्षेत्र में भले ही वह नये-नये विचारों को जन्म दे सकता है, परन्तु जब भौतिक पदार्थों के निर्माण की बात आती है तो वह केवल उपयोगिता का ही सृजन कर पाता है।"
परन्तु कुछ अर्थशास्त्री इस मत से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार,
"यदि किसी वस्तु की उपयोगिता में वृद्धि कर दी जाय किन्तु उसका विनिमय मूल्य न हो तो वह क्रिया उत्पादन नहीं कही जा सकती है अर्थात् उत्पादन के लिए वस्तु की उपयोगिता में वृद्धि के साथ-साथ उसके विनिमय मूल्य का होना भी आवश्यक है।"
प्रो. टोमस के अनुसार, "उत्पादन की सर्वोत्तम परिभाषा मूल्यों का निर्माण है।"
फेयरचाइल्ड के शब्दों में, "धन में उपयोगिता का सृजन करना ही उत्पादन कहलाता है।"
इस प्रकार के उत्पादन के लिए दो बातों का होना आवश्यक है -
(i) वस्तु में उपयोगिता का सृजन होना, तथा
(ii) 'मूल्यों का सृजन' या 'आर्थिक उपयोगिताओं का सृजन' होना।
उत्पादन के प्रकार (Types of production)
उत्पादन के प्रकार (utpadan ke prakar) निम्न हैं -
1. कृषि उत्पादन – फसल, फल, सब्जियाँ, डेयरी आदि का उत्पादन।
2. औद्योगिक उत्पादन – कारखानों में वस्तुओं का निर्माण, जैसे कपड़े, मशीन, वाहन आदि।
3. सेवा उत्पादन – शिक्षा, चिकित्सा, बैंकिंग, परिवहन जैसी सेवाएँ।
उत्पादन के कारक (Factors of production)
उत्पादन के कारक (utpadan ke karak) निम्न हैं-
1. भूमि – प्राकृतिक संसाधन जैसे मिट्टी, जल, खनिज।
2. श्रम – उत्पादन में योगदान देने वाले श्रमिक।
3. पूंजी – मशीन, उपकरण, धन आदि।
4. संगठन – उत्पादन प्रक्रिया को संगठित और प्रबंधित करने की क्षमता।
उत्पादन आर्थिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो किसी भी देश की प्रगति और समृद्धि को प्रभावित करता है।
उत्पादन की विशेषताएँ (Characteristics of Production)
पॉल स्टुडेंस्की के अनुसार, "आर्थिक उत्पादन में मनुष्य की उन क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनमें सीमित साधनों की सहायता से ऐसी वस्तुओं व सेवाओं का निर्माण किया जाता है जिनकी पूर्ति सीमित होती है, जिनका मौद्रिक मूल्य होता है और जिनसे मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होती है।" इस आधार पर उत्पादन की प्रमुख विशेषताएँ (Utpadan ki visheshtayen) निम्नलिखित कही जा सकती हैं-
(1) वस्तुएँ एवं सेवाएँ मानवीय श्रम व पूँजी द्वारा उत्पादित होनी चाहिए- जो वस्तुएँ मानवीय श्रम व पूँजी के बिना अस्तित्व में आती हैं, वे प्राकृतिक संसाधनों में शामिल हो जाती हैं। जब केवल श्रम द्वारा किसी वस्तु की उपयोगिता में वृद्धि होती है तो उसे प्रत्यक्ष उत्पादन कहते हैं तथा जब उसमें पूँजी का भी प्रयोग किया जाता है तब उसे अप्रत्यक्ष उत्पादन कहते हैं।1
(2) वस्तुओं व सेवाओं की पूर्ति उनकी माँग की तुलना में सीमित होनी चाहिए- यदि किसी वस्तु की पूर्ति उसकी माँग की तुलना में असीमित होगी तो वह आर्थिक वस्तु नहीं रह जायेगी व उसे उत्पादन में शामिल नहीं किया जायेगा। प्रकृति में हवा, पानी, प्रकाश आदि को उत्पादन में शामिल नहीं किया जाता है।
(3) वस्तुओं व सेवाओं का मौद्रिक मूल्य होना चाहिए- ऐसी वस्तुएँ व सेवाएँ जिनका मौद्रिक मूल्य नहीं है उन्हें उत्पादन नहीं कहा जा सकता है। प्रेम या वात्सल्य से प्रेरित होकर जो कार्य किये जायें उनकी मौद्रिक कीमत नहीं होती है, अतः उन्हें उत्पादन नहीं कहा जा सकता है। उदाहरणार्थ, एक अध्यापक जब स्नेहवश अपने छात्रों को स्कूल के समय के बाद पढ़ाता है (जो कि उसका दायित्व नहीं है या ऐसा करना उसके लिए आवश्यक नहीं है) तो उसे उत्पादन नहीं कहते हैं।
(4) वस्तुओं व सेवाओं की एक निश्चित लागत होनी चाहिए- उत्पादन तभी कहा जायेगा जबकि उसमें लागत (श्रम व पूँजी के रूप में) आयी हो। लागत न होने पर उसे उत्पादन में शामिल नहीं किया जाता है।
(5) वस्तुएँ व सेवाएँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने योग्य होनी ज़रूरी- वस्तुएँ व सेवाएँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने योग्य होनी चाहिए। उदाहरणार्थ, ब्रेड के उपभोग से मानवीय आवश्यकता की प्रत्यक्ष सन्तुष्टि होती है, इसलिए इसे उत्पादन में शामिल करेंगे। इसी के साथ इसके उत्पादन में 'ओवन' (Oven) का प्रयोग आवश्यक होता है जिसकी प्रत्यक्ष उपयोगिता नहीं होती है, परन्तु यह ब्रेड के उत्पादन में (अप्रत्यक्ष रूप से) उपयोगी होता है, इसलिए इसे भी उत्पादन में शामिल किया जाता है।
उत्पादन का महत्व (Importance of Production)
व्यक्तिगत तथा सामाजिक दृष्टिकोणों से उत्पादन के महत्व (Utpadan ka mahatva) निम्नलिखित हैं -
(1) मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति-
व्यक्ति उत्पादन के पश्चात् ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। यदि उत्पादन ही नहीं होगा तो आवश्यकताओं की पूर्ति भी सम्भव नहीं होगी।
(2) जीवन-स्तर का निर्धारण-
किसी व्यक्ति या समाज का जीवन-स्तर उत्पादन की मात्रा तथा प्रकार पर निर्भर करता है। जिस देश में उत्पादन अधिक होगा, वहाँ के निवासियों का जीवन-स्तर भी ऊँचा होगा। उदाहरणार्थ, भारतवासियों का जीवन-स्तर अमेरिका तथा अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में नीचा है। क्योंकि यहाँ उत्पादन की मात्रा कम है, जबकि इन देशों में उत्पादन की मात्रा बहुत अधिक है।
(3) व्यापार तथा वाणिज्य की प्रगति-
जब किसी देश में उत्पादन की मात्रा अधिक होगी तभी वह देश व्यापार तथा वाणिज्य में उन्नति कर सकता है। अतः देश का व्यापार तथा वाणिज्य उत्पादन की मात्रा पर ही निर्भर करता है।
(4) सार्वजनिक आय में वृद्धि-
किसी देश में वस्तुओं का जितना अधिक उत्पादन होगा उतना ही अधिक उपभोग होगा तथा सरकार को वस्तुओं पर लगाये गये करों से आय भी अधिक प्राप्त होगी। इस बढ़ी हुई आय को सरकार सामाजिक हित में व्यय कर सकती है।
कुल उत्पादन, औसत उत्पादन तथा सीमांत उत्पादन में पारंपरिक संबंध (mutual relations between total production, average production and marginal production)
उपरोक्त तीनों में पारस्परिक संबंध को हम निम्नानुसार समझ सकते हैं -
(1) उत्पादन के परिवर्तनशील साधनों की इकाईयों में। जैसे तैसे वृद्धि की जाती है, कुल उत्पादन बढ़ता जाता है। कुल उत्पादन उस समय अधिकतम होता है जबकि सीमांत उत्पादन शून्य होता है।
(2) कुल उत्पादन एवं औसत उत्पादन कभी भी शून्य नहीं हो सकते और इनके ऋणात्मक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
(3) सीमान्त उत्पादन के शून्य होने के पश्चात् भी यदि उत्पादन के साधनों को बढ़ाया जाता है तो इससे कुल उत्पादन में वृद्धि नहीं होगी, बल्कि कमी आनी शुरू हो जायेगी। ऐसी दशा में सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक हो जायेगा।
(4) उत्पादन की प्रारम्भिक अवस्था में कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है, वह बढ़ती हुई दर पर होती है। उत्पादन की बाद की अवस्था में कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है, वह घटती हुई दर पर होती है। सीमान्त उत्पादन के शून्य होने पर कुल उत्पादन में होने वाली वृद्धि रुक जाती है और फ़िर घटना शुरू हो जाती है।
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