माँग की लोच किसे कहते हैं | माँग की लोच का महत्व | माँग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्वों को बताइए

माँग की लोच से आप क्या समझते हैं? | माँग की लोच की अवधारणा, माँग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्व | माँग की लोच के महत्व क्या हैं?


माँग की लोच, क़ीमत में होने वाले थोड़े से परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग की मात्रा में होने वाले परिवर्तन की माप कहलाती है। माँग की लोच, मूल्य और माँगी गयी मात्रा के बीच पारस्परिक संबंध की मात्रा को बताती है।




माँग की लोच (mang ki kimat loch) को समझने के लिए हमें मांग का नियम समझना भी आवश्यक है। आप जानते हैं कि माँग का नियम, वस्तु की क़ीमत और उसकी माँगी जाने वाली मात्रा में विपरीत संबंध बताता है। परिमाण का नहीं। इसे समझने के लिए आप हमारे पिछले अंक माँग का नियम क्या है? ज़रूर पढ़ें। इस अंक में हम "माँग की कीमत लोच से क्या तात्पर्य है?" Mang ki loch se kya abhipray hai? पढ़ेंगे।

माँग के नियम के अनुसार, वस्तु की क़ीमत में वृद्धि होने से वस्तु की माँग घट जाती है। और क़ीमत कम होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार यदि देखा जाए तो माँग का नियम वस्तु की क़ीमत तथा माँगी गयी मात्रा में "परिवर्तन की दिशा" को बताता है। माँग का नियम यह नहीं बताता है कि क़ीमत बढ़ने पर टीवी की माँग में कमी क्यों आ जाएगी? या नमक की क़ीमत बढ़ जाने पर भी नमक की माँग क्यों नहीं घटती? इन्हीं सवालों के जवाब हम आज के अंक "Concept of elasticity of demand in hindi" माँग की लोच की अवधारणा के माध्यम से जानेंगे।


यानि कि सीधे शब्दों में कहा जाए तो माँग का नियम यह नहीं बताता कि माँग में होने वाला परिवर्तन किस दर से होता है। यह परिवर्तन कितनी मात्रा में होगा? इसी बात की पुष्टिकरण करने के लिए अर्थशास्त्रियों ने माँग की लोच संबंधी एक नई तकनीक पर विचार किया। माँग की लोच हमें यह बताती है कि कीमत में परिवर्तन होने से माँग में किस दर से परिवर्तन होगा?


माँग की लोच क्या होती है? | Mang ki loch kya hai? | Elasticity of demand in hindi

किसी वस्तु की क़ीमत में परिवर्तन होने से उस वस्तु की माँग में होने वाले परिवर्तन की मात्रा (क़ीमत के सापेक्ष) ही उस वस्तु की माँग की लोच (mang ki kimat loch) कहलाती है। माँग की कीमत लोच को समझने के लिए आइये हम कुछ विशिष्ट अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषाओं का अध्ययन करें। माँग की लोच की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नानुसार हैं -

प्रो. मार्शल के अनुसार - "किसी वस्तु की माँग की लोच में वृद्धि या कमी, इस बात पर निर्भर करती है कि उस वस्तु की क़ीमत में एक निश्चित कमी होने पर उसकी माँग में अपेक्षाकृत कितनी वृद्धि या कमी होती है। तो दूसरी ओर उस वस्तु की क़ीमत में एक निश्चित वृद्धि होने पर है तो उस वस्तु की माँग में अपेक्षाकृत कितनी वृद्धि या कमी होती है।"

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार - "माँग की लोच, क़ीमत में थोड़े से परिवर्तन के फलस्वरूप, वस्तु की ख़रीदी गई मात्रा के आनुपातिक परिवर्तन को, उस वस्तु की क़ीमत में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन से भाग देने पर प्राप्त होती है।"

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि माँग की लोच, क़ीमत में थोड़े से परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग की मात्रा में होने वाले परिवर्तन की माप कहलाती है। इस प्रकार माँग की लोच, वस्तु का मूल्य और उस वस्तु की माँगी गयी मात्रा के बीच पारस्परिक संबंध की मात्रा को दर्शाती है।




अतः हम सरल शब्दों में- "माँग की लोच उस दर को कहते हैं, जो किसी वस्तु की क़ीमत में परिवर्तन के साथ वस्तु की माँगी जाने वाली मात्रा में परिवर्तन को बताती है।"



माँग की लोच को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting elasticity of demand in hindi)

माँग की लोच को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं। माँग की क़ीमत लोच को प्रभावित करने वाले तत्व mang ki loch ko prabhavit karne vale tatv इस प्रकार हैं-

(1) वस्तु की प्रकृति - किसी भी वस्तु के स्वभाव का माँग की लोच पर सीधा प्रभाव पड़ता है। माँग की लोच कम होगी या अधिक उस वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। यानि कि वस्तु अनिवार्य है, आरामदायक है या विलासिता की है। अनिवार्य तथा आवश्यकता की वस्तुओं (जैसे - चावल गेहूँ, नमक, तम्बाकू आदि) की माँग प्रायः बेलोचदार होती हैं। ये ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिनके मूल्य में परिवर्तन होने के बाद में भी उनकी माँग पर कोई प्रभाव नही पड़ता।

आरामदायक वस्तुओं की माँग लोचदार होती है क्योंकि यदि इनके मूल्य में कमी आ जाए तो माँग में वृद्धि और मूल्य में वृद्धि हो जाए तो माँग में कमी आने लगती है। तो वहीं विलासिता पूर्ण वस्तुओं की माँग अधिक लोचदार होती है। क्योंकि इन वस्तुओं की क़ीमतों में परिवर्तन से उनकी माँग पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

(2) स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धता - ऐसी वस्तुएँ जिनके बदले में किसी और वस्तु का प्रयोग किया जा सकता हो। जैसे कि कॉफ़ी तथा चाय, शक्कर तथा गुड़। अर्थात जिन वस्तुओं की निकट स्थानापन्न वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं। ऐसी वस्तुओं की माँग, अधिक लोचदार होती है। क्योंकि यदि एक वस्तु की क़ीमत बढ़ जाए तो, लोग उसके स्थान पर दूसरी वस्तु का प्रयोग करने लगते हैं। बशर्ते दूसरी वस्तु की क़ीमत पहले से स्थिर हो। जिन वस्तुओं की अनेक स्थानापन्न वस्तुएँ होती हैं। उनकी माँग अधिक लोचदार, व जिन वस्तुओं की कोई निकट स्थानापन्न वस्तुएँ नहीं होतीं, ऐसी वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है।

(3) वस्तु के अनेक प्रयोग - ऐसी वस्तु जिसका प्रयोग अनेक कार्यों में किया जा सकता हो। इनकी माँग अधिक लोचदार होती है। जैसे बिजली, कोयला आदि। यदि बिजली कि दरों में कमी आ जाए तो लोग इसका प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। जैसे- रोशनी, खाना बनाने, कमरा गर्म करने, रेडियो-टीवी चलाने, मशीन चलाने, पंखा-कूलर चलाने इत्यादि के लिए प्रयोग किया जाने लगता है।

लेकिन यदि बिजली की क़ीमतों में वृद्धि हो जाती है तो बिजली के प्रयोग में कटौती होना शुरू हो जाती है। तब बिजली का प्रयोग केवल अत्यंत आवश्यक कार्यों में ही किया जाता है। अर्थात बिजली के मूल्य में वृद्धि से इसकी माँग में कमी आने लगती है। और मूल्य में कमी से माँग में भारी वृद्धि आ जाती है।



(4) वस्तु के उपभोग को भविष्य में स्थगित करने की संभावना - वस्तुएँ यदि ऐसी हैं कि उसकी क़ीमत में वृद्धि होने से उसका प्रयोग भविष्य में स्थगित किया जा सकता हो, तो ऐसी स्थिति में उस वस्तु की माँग लोचदार होती है।जैसे - टाई, रेडियो, छाते, जूते इत्यादि। उदाहरण के लिए छाते के मूल्य में वृद्धि हो जाने से लोग बग़ैर छाते के काम चलाना शुरू कर देते हैं। जिस कारण छाते की माँग बहुत घट जाती है। 

इसके विपरीत बहुत सी वस्तुएँ ऐसी होती हैं जैसे चावल, गेहूँ। जिनके मूल्यों में वृद्धि हो जाए तब भी उनके उपभोग को रोका नहीं जा सकता। ऐसी वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है।

(5) उपभोक्ता की आर्थिक स्थिति - उपभोक्ता की आय की स्थिति का, वस्तु की माँग की लोच पर सीधा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः धनी लोगों के लिए माँग की लोच बेलोचदार होती है। क्योंकि किसी भी वस्तु की क़ीमत में वृद्धि का उन पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत निर्धन या मध्यम वर्ग के लोगों के लिए वस्तु की माँग अधिक लोचदार होती है। क्योंकि वस्तु की क़ीमतों में होने वाले परिवर्तन से उनकी माँग पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है।

(6) वस्तु पर व्यय किया जाने वाला आय का भाग - ऐसी वस्तुएँ जिन पर उपभोक्ता अपनी आय का छोटा भाग ख़र्च करने के लिए इच्छुक होता है। उनकी माँग बेलोचदर होती है। किंतु ऐसी वस्तु जिन पर उपभोक्ता अपनी आय का एक बड़ा भाग ख़र्च करने का इच्छुक होता है। उन वस्तुओं की माँग अधिक लोचदार होती है।

(7) संयुक्त माँग - ऐसी वस्तुएँ जिनकी माँग एक साथ यानि कि किसी दूसरी वस्तु के साथ की जाती है। जैसे- डबल रोटी और मख्खन, सिगरेट और दियासलाई, पेन और स्याही, घड़ी और चैन, कार और पेट्रोल इत्यादि। ऐसी वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती हैं। क्योंकि इन वस्तुओं में यदि एक वस्तु का प्रयोग करना हो, उसके साथ कि दूसरी वस्तु का प्रयोग भी करना आवश्यक हो जाता है। चाहे उसकी क़ीमत कम या ज़्यादा ही क्यों न हो। ऐसी वस्तुओं को पूरक वस्तुएँ या सँयुक्त माँग वाली वस्तुएँ कहा जाता है।


माँग की लोच का महत्व (importance of elasticity of demand in hindi)

हम आपको बता दें कि माँग की लोच की धारणा का अर्थशास्त्र में अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी आर्थिक विश्लेषण में माँग की लोच (Maang ki loch) का अत्यधिक महत्व होता है। 

प्रो. कीन्स के शब्दों में - "अर्थशास्त्र के लिए माँग की लोच का सिद्धान्त, मार्शल की सबसे बड़ी देन है। इसके अध्ययन के बिना मूल्य तथा वितरण के सिद्धांतों की विवेचना सम्भव नहीं है।"

माँग की लोच के महत्व (Mang ki loch ka mahatva) को हम निम्नलिखित रूप में विस्तार से समझते हैं- 

(1) मूल्य-निर्धारण के सिद्धान्त में महत्व -
जब भी अपनी वस्तु का मूल्य निर्धारण करना हो तो प्रत्येक उत्पादक को उस समय माँग की लोच के विचार को ध्यान में रखना पड़ता है। आइये हम कुछ बिंदुओं के माध्यम से माँग की लोच के महत्व को समझने का प्रयास करते हैं।

  •  साम्य की दशाओं में मूल्य निर्धारण - माँग की लोच की धारणा तब काफ़ी सहायक सिद्ध होती है जब मार्केट में साम्य की स्थिति उत्पन्न हो। और कोई भी फर्म साम्य की स्थिति में तब होती है जब उस फर्म की सीमांत आय और सीमांत लागत बराबर हो। प्रत्येक उत्पादक को अपनी वस्तु की क़ीमत निर्धारण के समय उसकी माँग की लोच का ध्यान रखना होता है। यदि उसकी वस्तु की माँग लोच अधिक है तो वह वस्तु की क़ीमत कम रखेगा। क्योंकि ऊँची कीमत पर वस्तु की माँग घाट जाएगी। और यदि माँग की लोच कम है तो वह अपनी वस्तु की क़ीमत ऊँची भी रख सकता है।

  • एकाधिकार की दशाओं में मूल्य निर्धारण - एकाधिकार की स्थिति में भी उत्पादक को अपनी वस्तु की क़ीमत निर्धारण करते समय वस्तु की माँग की लोच का ध्यान रखना होता है। क्योंकि एकाधिकारी केवल वस्तु की पूर्ति पर नियंत्रण रख सकता है। उसकी माँग पर नहीं। इसलिए यदि वस्तु की माँग अधिक लोचदार है तो वस्तु का मूल्य कम रखना होता है। और यदि वस्तु की माँग बेलोचदार है तो, वस्तु का मूल्य ऊँचा रख सकता है। एकाधिकार monopoly क्या है? इसकी विशेषताएँ व क़ीमत निर्धारण जानने के लिए इसे पढ़ें।

  • मूल्य विभेद की दशा में मूल्य निर्धारण - एक ही वस्तु को अलग-अलग बाज़ारों में अलग-अलग मूल्यों पर बेचने की दशा में भी उत्पादक को उस बाज़ार में वस्तु की माँग की लोच का ध्यान रखना होता है। जिस बाज़ार में माँग की लोच अधिक हो, उस बाज़ार में वह अपनी वस्तु की क़ीमत कम रखता है। और जिस बाज़ार में उसकी वस्तु की माँग लोच बेलोचदार हो तो उस बाज़ार में वस्तु की क़ीमत ऊँची रखकर वह अधिकतम लाभ कमा सकता है।



  • संयुक्त पूर्ति की दशा में मूल्य निर्धारण - कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनकी पूर्ति संयुक्त रूप से यानि कि एक साथ की जानी होती है। जैसे- गेहूँ व भूसा, चीनी व शीरा आदि। ऐसी वस्तुओं के मूल्य निर्धारण में भी उन वस्तुओं की माँग की लोच का ध्यान रखते हुए उनकी क़ीमत निर्धारित की जाती है। यदि वस्तु बेलोचदार है तो क़ीमत निश्चित रूप से ऊँची रखी जा सकती है। किंतु यदि वस्तुओं की माँग, अधिक लोचदार है तो उनका मूल्य अपेक्षाकृत नीचा रखा जा सकता है।


(2) वितरण के सिद्धान्त में महत्व - उत्पादन के विभिन्न साधनों की क़ीमत निर्धारण में भी माँग की लोच का महत्व होता है। उत्पादक को अपनी उत्पत्ति के साधनों के लिए क़ीमत निर्धारित करते समय माँग की लोच का विचार ध्यान में रखना आवश्यक होता है। जिन साधनों की माँग बेलोचदार होती है उनको वह अधिक पुरस्कार देता है। लेकिन जिन साधनों की माँग लोचदार होती है उनको कम पुरस्कार देता है।


(3) सरकार के लिए महत्व - माँग की लोच की धारणा, सरकार के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। ये धारणा निम्न प्रकार से उपयोगी साबित होती है-

  • कर नीति निर्धारण में सहायक - सरकार को जब भी कर का निर्धारण करना होता है। तब इस बात का विशेष ध्यान दिया जाता है कि किन वस्तुओं की माँग की लोच कम या अधिक है। इसलिए सरकार उन वस्तुओं पर कम कर (tax) लगाती है जिनकी माँग अधिक लोचदार होती है। इसके विपरीत उन वस्तुओं पर अधिक tax लगाने में सफल हो जाती है जिन वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है। भारतीय कर प्रणाली क्या है? जानने के लिए इसे क्लिक कर पढ़ें।

  • सार्वजनिक क्षेत्र के निर्धारण में सहायक - माँग की लोच के आधार पर ही सरकार यह तय कर पाती है कि वह किन उद्योगों या सेवाओं को सार्वजनिक घोषित करते हुए उसका प्रबंधन अपने हाथों में ले ले। और किन उद्योगों अथवा सेवाओं को निजी हाथों को सौंप दे। इसलिए जिन उद्योगों या सेवाओं के उत्पादों की माँग बेलोचदार होती हैं। सरकार उन उद्योगों या सेवाओं का प्रबंधन अपने हाथों में लेती है। और जिन उद्योगों या सेवाओं के उत्पादों की माँग लोचदार होती हैं। उन्हें निजी क्षेत्र के हाथों में दे दिया जाता है।

  • कर के भार का अध्ययन करने में सहायक - कर tax लगाते समय सरकार के सामने एक समस्या यह भी होती है कि वह कर किस प्रकार लगाए कि उसका भार न्यायपूर्ण हो। इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकार या उत्पादक को माँग की लोच की अवधारणा का सहारा लेना पड़ता है। इसके लिए ऐसी वस्तुएँ जिनकी माँग बेलोचदार है। उनके कर (टेक्स) का भार सीधे उपभोक्ताओं पर डाल दिया जाता है। इसके विपरीत जिन वस्तुओं की माँग अधिक लोचदार है उन वस्तुओं के कर का भार सरकार या उत्पादक स्वयं वहां करता है।

  • आर्थिक नीति के निर्धारण में सहायक - आर्थिक नीति के निर्धारण के लिए सदैव ही माँग व माँग की लोच का ज्ञान होना आवश्यक माना जाता है। व्यापारिक उच्चावचनों पर नियंत्रण करना हो, मुद्रा स्फीति व मुद्रा संकुचन के दुष्प्रभावों को नियंत्रित करना हो या आर्थिक गतिविधियों में उपयुक्त परिवर्तन लाना हो। तो यह अत्यंत आवश्यक है कि सरकार को वस्तुओं व सेवाओं की माँग की लोच की पूर्ण व विस्तृत जानकारी हो।

(4) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्व - विदेशी व्यापार करना हो, तो विभिन्न देशों के मध्य व्यापार की शर्तें, उन देशों द्वारा आपस में आयात या निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की माँग की लोच पर निर्भर करती हैं। यदि हमारे देश में उत्पादित की जाने वाली वस्तुओं की माँग बेलोचदार है। तो हम ऊँची क़ीमत पर भी निर्यात कर सकते हैं। इससे वस्तुओं की विदेशी माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके विपरीत यदि देश में उत्पादित वस्तुओं की माँग लोचदार है तो हमें उन वस्तुओं की क़ीमत कम रखनी होगी।

यही परिस्थिति (situation) आयात के लिए भी होगी। यदि आयात बेलोचदार हो तो हमें उन वस्तुओं के लिए ज़्यादा क़ीमत भी चुकानी पड़ सकती है। इसके विपरीत यदि आयात की जा रही वस्तुओं की माँग लोचदार है तो हमें उन वस्तुओं के लिए ऊँची क़ीमत नहीं चुकानी होगी।

(5) परिवहन उद्योग में महत्व - माँग की लोच mang ki loch का परिवहन उद्योग में भाड़े की दर निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उदाहरणार्थ, यदि वस्तुओं की परिवहन माँग बेलोचदार है, तो भाड़े की दर ऊँची निर्धारित की जा सकती है। इसके विपरीत यदि वस्तुओं के परिवहन की माँग लोचदार है, तो उनका भाड़ा कम रखना पड़ता है।


(6) साधनों के आवंटन में महत्व - माँग की लोच की यह धारणा, उत्पादन के साधनों के आवंटन के लिए अत्यंत ही सहायक साबित होती है। एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था में सम्पूर्ण उत्पादन कार्यों का संचालन एवं नियंत्रण, माँग की लोच के आधार पर ही सुनिश्चित किया जाता है। जिन वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है, उनके उत्पादन के लिए अधिक से अधिक साधनों का आवंटन निर्धारित किया जाता है ताकि उत्पादक जन वस्तुओं का अधिक उत्पादन कर, अधिक से अधिक लाभ कमा सके।

(7) विनिमय दर के निर्धारण में महत्व - जिन देशों के लिए हमारे देश की मुद्रा की माँग बेलोचदार होती है, उन देशों के साथ अपने देश की मुद्रा की विनिमय दर ऊँची रखी जाती है। ठीक इसके विपरीत, जिन देशों की मुद्रा की माँग अधिक लोचदार होती है। उन देशों के साथ व्यापार करते समय अपने देश की मुद्रा की विनिमय दर नीची रखनी होती है। 

उम्मीद है यह अंक माँग की लोच क्या है | माँग की लोच को प्रभावित करने वाले घटक | Mang ki loch ka mahatv bataiye अवश्य पसंद आया होगा। मैं आशा करता हूँ यह आर्टिकल आपके अध्ययन में अवश्य मददग़ार साबित होगा। इसे अपने दोस्तों से ज़रूर share करिये। और हाँ! अपनी प्रतिक्रिया आप नीचे comment box में दे सकते हैं।


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