समंकों का संकलन क्या है? (समंक का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, प्राथमिक समंक, द्वितीयक समंक, प्राथमिक समंक के प्रकार, द्वितीयक समंको के प्रयोग में सावधानियां)
किसी भी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत ऐसे अनेक उद्देश्य होते हैं जिनके अंतर्गत आँकड़े प्राप्त करना उन्हें एकत्र करना, वर्गीकृत करने के उपरांत विश्लेषण करना और फिर उन्हीं विश्लेषित आंकड़ों को प्रकाशित करना आवश्यक होता है। ताकि सभी के लिए वह डाटा आसानी से प्राप्त हो सके। इस तरह की प्रक्रिया प्रायः समस्त अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे आँकड़ों की सदैव ही आवश्यकता पड़ती रहती है, चाहे फ़िर वो आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक ही क्यों न हो।
समय समय पर अनेक विशिष्ट उद्देश्यों के लिए सरकार, समितियों, प्राइवेट संस्थाओं अथवा अनेक अनुसंधानकर्ताओं के लिए ऐसे ही अनेक समंकों (आँकड़ों) की आवश्यकता होती है। जिन्हें संकलित करने की प्रक्रिया को बड़ी ही जटिल व सावधानी पूर्वक पूर्ण करना होता है। ताकि एक निश्चित समय में, निश्चित उद्देश्य के लिए हमें विभिन्न क्षेत्रों का एक विश्वसनीय Data प्राप्त हो सके।
अनुसंधान हेतु आवश्यक इन्हीं आँकड़ों को समंक कहा जाता है। इस अंक में हम इन्हीं समंकों के बारे में समझने का प्रयास करेंगे। तो आइए हम समंक क्या हैं? (What is data in statistics in hindi) इसके विषय में जानते हैं।
Table of Contents :
5.1.1. सरकारी प्रकाशन5.1.2. आयोग व समितियों के प्रकाशन5.1.4. अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन5.1.6. अनुसंधान संस्थाओं के प्रकाशन
समंक की परिभाषा ꘡ Data definitions in hindi) ꘡ Samank kya hai ꘡ Samank meaning in hindi
सामान्य शब्दों में समंकों का अर्थ (Samanko ka arth) तथ्यों के उन समूहों से होता है, जिन्हें संख्याओं में व्यक्त किया जा सके, जिन्हें शुद्धता के एक उचित स्तर द्वारा गिना या अनुमानित किया जा सके। अर्थात किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य के लिए जिन्हें एकत्रित किया जाता है और जिन्हें एक-दूसरे से संबंधित रूप में प्रस्तुत किया जाता है। समंक (data) कहलाते हैं।
समंकों के संकलन (Samanko ke sankalan) के समय यदि किसी प्रकार की ग़लती या लापरवाही होती है तो यह निश्चित रूप से सारे अनुसन्धान को प्रभावित कर सकती है। इसलिए किसी भी अनुसन्धानकर्ता के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इस तरह के अनुसन्धान में होने वालों समंकों के संकलन हेतु पूर्ण विवेक से कार्य करे। साथ ही अत्यंत सावधानी व सतर्कता बरते।
समंकों के प्रकार (Types of Data in hindi)
संकलन की दृष्टि से समंक (Sankalan ki drashti se samank) दो प्रकार के होते हैं-
(1) प्राथमिक समंक (Primary Data)
(2) द्वितीयक समंक (Secondary Data)
(1) प्राथमिक समंक (Primary Data in hindi)
वे समंक जिन्हें अनुसंधानकर्ता द्वारा पहली बार एकत्रित किया जाता है प्राथमिक समंक (Prathmik samank) या प्राथमिक आंकड़े (Prathmik aankde) कहा जाता है। इस तरह के संकलन में अनुसंधानकर्ता ही स्वयं नये सिरे से समंकों का संकलन, वर्गीकरण, विश्लेषण तथा प्रकाशन करता है।
दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें पहली बार, किसी अनुसंधानकर्ता द्वारा किसी निश्चित उद्देश्य के लिए संकलित किया जाता है।
अनुसंधानकर्ता द्वारा किसी योजना के तहत किसी विशेष उद्देश्य से उस क्षेत्र विशेष में जाकर स्वयं समंकों का संकलन (Samankon ka sankalan) किया जाता है। ये सभी समंक पहली बार संकलित किये जाते है। इसमें विश्वसनीयता भरपूर होती है।
अनुसंधानकर्ता खोज के उद्देश्य, आकार व स्वरूप के आधार पर आँकड़े एकत्र करता है। ये सभी आँकड़े पहली बार ही संकलित किये जाते हैं। सही मायने में कहा जाए तो ये सभी आँकड़े कच्चे माल की तरह होते हैं। जिन पर विश्लेषण और निर्वचन के उद्देश्य से सांख्यकीय रीतियों का प्रयोग किया जाता है।
(2) द्वितीयक समंक (Secondary Data in hindi)
द्वितीयक समंक ऐसे समंकों को कहा जाता है जिन्हें पूर्व में ही किन्हीं व्यक्तियों, संस्थाओं या अनुसंधानकर्ताओं द्वारा एकत्र किया जा चुका है। लेकिन कोई नया अनुसंधानकर्ता इन्हीं आंकड़ों का इस्तेमाल अपने अनुसंधान में करता है। यानी कि उसके लिए ये समंक द्वितीयक समंक (Dvitiyak samank) कहलाते हैं।
द्वितीयक समंक सही मायने में वो होते हैं जिन्हें पूर्व में ही किसी अन्य व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा संकलित और विश्लेषण के साथ प्रकाशित किया जा चुका हो।
अर्थात कह सकते हैं कि "जब कोई अनुसंधानकर्ता किसी अन्य अनुसंधानकर्ता द्वारा संकलित किये गए उपलब्ध समंकों को ही आधार बनाकर अपने लिए अनुसन्धान करता है तो प्रयोग में आने वाले यही प्राथमिक समंक उस नये अनुसंधानकर्ता के लिए द्वितीयक समंक कहलाते हैं।"
एम. एम. ब्लेयर के अनुसार- "द्वितीयक समंक वे हैं, जो पहले से ही अस्तित्व में हैं और जो वर्तमान प्रश्नों के उत्तर के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य से पहले भी एकत्रित किये जा चुके हैं।"
उदाहरण के लिए यदि हम ग्रामीण ऋणग्रस्तता से संबंधित अनुसंधान करना चाहें तो हमें रिज़र्व बैंक या संबंधित बैंक से प्रकाशित अथवा अप्रकाशित आँकड़े प्राप्त हो सकते हैं जो कि हमारे लिए द्वितीयक सामग्री कहलाएगी। अर्थात हम यह कह सकते हैं कि यही समंक हमारे लिए द्वितीयक समंक (Secondary data) होंगे।
प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों में अंतर (Difference Between Primary and Secondary Data in hindi)
प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों के बीच पाए जाने वाले अंतर (Prathmik evam dvitiyak samanko me antar) निम्नलिखित हैं -
(1) प्राथमिक समंकों में मौलिकता होती है क्योंकि ये अनुसंधानकर्ता द्वारा स्वयं एकत्रित किये जाते हैं। जबकि द्वितीयक समंक किसी व्यक्ति, संस्था अथवा अनुसंधानकर्ता द्वारा पूर्व में ही किसी उद्देश्य हेतु एकत्रित किये जा चुके होते हैं। जिन्हें दोबारा नया अनुसंधानकर्ता अपने उद्देश्य के लिए उपयोग करता है। इनमें मौलिकता नही पायी जाती।
(2) प्राथमिक समंकों को एकत्रित करने में धन, समय, मेहनत व बुद्धि का प्रयोग ज़्यादा करना पड़ता है। क्योंकि इसे नये सिरे से तैयार करना होता है। जबकि द्वितीयक समंक पहले से प्राप्त किये जा चुके आंकड़े होते हैं जिन्हें अपने ज़रूरत के हिसाब से उपयोग करना होता है। इसीलिए इसमे धन, समय, परिश्रम या बुद्धि का ज़्यादा प्रयोग नहीं करना पड़ता।
(3) प्राथमिक समंक अनुसंधानकर्ता के लिए सदैव ही अनुकूल होते हैं। इन समंकों को संशोधन की ज़रूरत नहीं होती। क्योंकि ये किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए ही स्वतंत्र रूप से एकत्रित किये जाते हैं। जबकि द्वितीयक समंकों को अपने उद्देश्य के अनुकूल करने के लिए विभिन्न संशोधन करने होते हैं क्योंकि ये पहले ही किसी और उद्देश्य हेतु संकलित किये जा चुके होते हैं।
(4) प्राथमिक समंकों के प्रयोग करते समय अत्यंत सावधानी बरतने की आवश्यकता नहीं होती। जबकि द्वितीयक समंक को प्रयोग में लाते समय अत्यधिक सावधानी की ज़रूरत होती है। क्योंकि द्वितीयक समंक किसी और के एकत्रित किये हुए होते हैं इसीलिए इनकी बिना जाँच पड़ताल किये उनके स्रोत, उद्देश्य व अनुसंधान को परखे बिना प्रयोग कर लेना ख़तरनाक हो सकता है।
इस प्रकार हम प्राथमिक समंक (Primary data) और द्वितीयक समंक (Secondary data) के अंतर को देखते हुए यह कह सकते हैं कि "जो समंक एक व्यक्ति के लिए प्राथमिक होते हैं वही समंक किसी नये व्यक्ति के लिए द्वितीयक बन जाते हैं।"
एच. सैक्राइस्ट ने कहा भी है कि, "प्राथमिक व् द्वितीयक आंकड़ों में अंतर केवल अंशों का है। जो आंकड़े एक पक्ष के लिए प्राथमिक हैं, वही दूसरे पक्ष के लिये द्वितीयक हो जाते हैं।"
नये सिरे से प्रथम बार किसी अनुसंधानकर्ता द्वारा एकत्र किए आँकड़े (समंक) उस अनुसंधानकर्ता के लिए तो प्राथमिक Primary होते हैं किंतु उन्हीं आंकड़ों (समंकों) को किसी और व्यक्ति या अनुसंधानकर्ता द्वारा अपने प्रयोग में लाते ही उस नये अनुसंधानकर्ता के लिए द्वितीयक बन जाते हैं।
प्राथमिक समंकों का संकलन (Collection of Primary Data in hindi)
प्राथमिक समंकों को एकत्रित करने की रीतियाँ (Prathmik samanko ko ekatrit karne ki ritiyaan) निम्नलिखित हैं। इन विधियों को साधारण तौर पर प्राथमिक विधियाँ भी कहा जा सकता है-
(1) प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान (Direct Personal Investigation)
(2) अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान (Indirect Oral Investigation)
(3) स्थानीय संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्ति (By Local Correspondence)
(4) सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरवाकर (Questionnaires to be filled by Informants)
(5) प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर (Schedules to be filled in by Enumerators)
आइये हम प्राथमिक समंकों के संकलनों की उपरोक्त विधियों को क्रमशः समझाते हैं ताकि आप प्राथमिक समंकों को संकलित करने की इन विधियों के बारे में जान सकें-
(1) प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान (Direct Personal Investigation in hindi)
इस विषय के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता स्वयं ही उस क्षेत्र विशेष में जाकर संबंधित व्यक्तियों से अपने अनुसंधान के लिए जानकारियां एकत्रित करते हैं। यह विधि ऐसे अनुसंधानों के लिए उपयुक्त मानी जाती है जिसका क्षेत्र सीमित और स्थानीय होता है। यानी कि अनुसंधानकर्ता वहां की भाषा, रीतिरिवाजों से पूर्णतः परिचित हो। इस प्रकार की विधि में समंकों के मौलिक व शुद्ध होने के Chance ज़्यादा होते हैं। इस विधि का प्रयोग सामान्यतः मज़दूरों के आय-व्यय संबंधी समंकों के संकलन हेतु किया जाता है। ताकि प्रत्येक बिंदुओं पर स्पष्ट और मौलिक जानकारी प्राप्त की जा सके।
👉 प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान (direct personal investigation) क्या है? अर्थ, परिभाषा, गुण, दोष, सावधानियां।
(2) अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान (Indirect Oral Investigation in hindi)
इस के विधि के अंतर्गत सूचकों से प्रत्यक्ष रूप से जानकारी (समंक) प्राप्त न करते हुए उन व्यक्तियों से भी प्राप्त किये जाते हैं जिनका उन समंकों से अप्रत्यक्ष संबंध होता है।
यानी कि सरल भाषा में समझें तो इस रीति में कोई अनुसंधानकर्ता प्रत्येक व्यक्ति के पास जाकर व्यक्तिगत समंक प्राप्त करने के बजाए किसी विशेष व्यक्ति से ही सभी के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेता है। इस विधि का प्रयोग सामान्यतः जाँच समितियाँ या आयोग करती हैं। इस विधि में यह आवश्यक है कि अनुसंधानकर्ता को चालाक, साहसी और व्यक्तिगत रुचि लेने वाला होना चाहिए।
(3) स्थानीय संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्ति (By Local Correspondence)
इस विधि के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता द्वारा अपने उद्देश्य के अंतर्गत आने वाले विभिन्न स्थानों पर स्थानीय व्यक्तियों या विशिष्ट प्रकार के संवाददाताओं को नियुक्त कर दिया जाता है। जो लगातार अपने अनुभव के अनुसार उन स्थानों से सूचनायें भेजते रहते हैं। इस विधि का प्रयोग प्रायः समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं द्वारा किया जाता है। हालांकि इसमें कुछ त्रुटियाँ अवश्य होती हैं लेकिन सांख्यिकीय रूप से इन अशुद्धियों को समकारी (Equalization) रूप से दूर कर लिया जाता है।
(4) सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरवाकर (Questionnaires to be filled by Informants in hindi)
इस विधि के अंतर्गत एक प्रश्नावली तैयार कर ली जाती है। इस प्रश्नावली की सूची में उस विशेष अनुसंधान से संबंधित ही प्रश्न शामिल किए जाते हैं। इस सूची को डाक द्वारा संबंधित व्यक्तियों के पास भेज जाता है। साथ ही यह अनुरोध किया जाता है कि वे सभी इस अनुसूची में शामिल किए गए प्रश्नों के उत्तर लिखकर एक नियत समय में लौट दें। उनको यह आश्वासन भी दिया जाता है कि उनके द्वारा दी गयी समस्त जानकारियाँ गुप्त रखी जायेगी। इस विधि का प्रयोग ऐसे स्थानों के लिए उपयुक्त होता है जो विस्तृत हो। और जहाँ पहुँचना अनुसंधानकर्ता के लिए आसान ना हो और उस अनुसंधान क्षेत्र के लोग शिक्षित और समझदार हों। तो ऐसी परिस्थिति में यह प्राथमिक संकलन आसानी से कर लिया जाता है।
(5) प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर (Schedules to be filled in by Enumerators in hindi)
इस विधि का प्रयोग इसीलिये किया जाता है क्योंकि प्रश्नावली डाक द्वारा भेजे जाने पर लोग सही-सही जानकारी नहीं दे पाते। साथ ही उनके द्वारा भेजी गई सूचनाएं अधूरी व अपूर्ण भी होती हैं। इन्हीं कठिनाइयों को ठीक करने के लिए अनुसूची विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि में सभी बातों को ध्यान में रखते हुए प्रश्नों की अनुसूची तैयार की जाती है। इस अनुसूची को डाक द्वारा न भेजकर प्रशिक्षित प्रगणक स्वयं संबंधित व्यक्तियों के पास जाकर उत्तर को सावधानी पूर्वक भरते हैं।
इस तरह की विधि का प्रयोग सरकार द्वारा बड़े स्तर पर किये गए सर्वेक्षणों के लिए किया जाता है। जैसे- राष्ट्रीय निदर्शन सर्वेक्षण संगठन (N. S. S. O.), राष्ट्रीय जनगणना आदि में इस तरह की विधि प्रयुक्त होती है।
👉 प्रगणकों द्वारा अनुसूची तैयार करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अनुसूची के गुण व दोष बताइये।
द्वितीयक समंकों का संकलन (Collection of Secondary Data in hindi)
द्वितीयक समंक वे आँकड़े होते हैं जिन्हें किसी दूसरे व्यक्ति, संस्था या अनुसंधानकर्ता द्वारा दोबारा प्रयोग में लाया जाता है जबकि वे समंक किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए पहले ही प्रयोग में लिए जा चुके होते हैं। अर्थात अनुसंधानकर्ता विभिन्न स्रोतों से अपने विशिष्ट उद्देश्य के लिए समंक एकत्र करता है।
ऐसे समंकों के संकलन के लिए स्रोत 2 प्रकार के होते हैं जो कि निम्नानुसार हैं-
(1) प्रकाशित समंक (Published Data)/प्रकाशित स्रोत
(2) अप्रकाशित समंक (Unpublished Data)/अप्रकाशित स्रोत
द्वितीयक समंक प्रकाशित तथा अप्रकाशित दोनों ही हो सकते हैं। इन्हें प्रकाशित स्रोत और अप्रकाशित स्रोत भी कह सकते हैं। इन्हीं दोनों स्रोतों के माध्यम से कोई भी संस्था, समिति अथवा अनुसंधानकर्ता अपने उद्देश्यों के लिए समंक प्राप्त करता है तथा उन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाता है। आइये इन्हीं स्रोतों के बारे में जानते हैं।
(1) प्रकाशित स्रोत (Published Sources in hindi)
प्रकाशित स्रोत क्या होते हैं? यानि कि "ऐसे समंक जिन्हें सरकारी एवं ग़ैर सरकारी संस्थाओं ने विभिन्न उद्देश्यों हेतु एकत्र करने के बाद, सांख्यिकीय सामग्री को प्रकाशित किया हो।"
अनुसंधानकर्ता अपने उद्देश्यों से संबंधित विषयों के लिए उपयुक्त आँकड़ों के रूप में प्रकाशित किये गए समंकों को उपयोग में लाता है। प्रकाशित समंकों के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं-
(1) सरकारी प्रकाशन (Government publications)
केंद्रीय सरकार तथा राज्य सरकार के विभिन्न मंत्रालयों या विभागों द्वारा समय-समय पर विभिन्न विषयों से संबंधित समंकों (आँकड़ों) को प्रकाशित किया जाता है। ये समंक किसी अनुसंधानकर्ता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। क्योंकि ये अधिक विश्वसनीय व उपयोगी होते हैं।
उदाहरणार्थ: राष्ट्रीय आय संबंधी आँकड़े, आर्थिक सर्वेक्षण संबंधी आँकड़े, जनगणना संबंधी आँकड़े, व्यापारिक आँकड़े, जनगणना संबंधी आँकड़े आदि।
(2) आयोग व समितियों के प्रकाशन (Report of Commissions and Committees)
सरकारों को समय-समय पर विभिन्न विषयों पर जाँच तथा विशेषज्ञों की राय भी लेनी होती है जिसके लिए जाँच समितियों व आयोगों का गठन करना होता है। ये समितियाँ संबंधित आँकड़ों को प्रकाशित भी करती हैं। जो कि नये-नये अनुसंधानकर्ताओं के लिए अच्छे स्रोत का काम करते हैं। उदाहरणार्थ: वित्त आयोग की रिपोर्ट, एकाधिकार आयोग की रिपोर्ट, बांचू समिति की रिपोर्ट आदि।
(3) अर्धसरकारी संस्थाओं के प्रकाशन (Publications of Semi-government Institutions)
कुछ अर्धसरकारी संस्थाओं जैसे - नगर निगम, नगर पालिका, पंचायतें, बोर्ड एवं विश्वविद्यालयों के द्वारा समय-समय पर आँकड़ें संकलित व प्रकाशित कियर जाते हैं। जो कि अनुसंधानकर्ताओं के लिए अच्छे स्रोत होते हैं। उदाहरणार्थः जन्म-मृत्यु, स्वास्थ्य, शिक्षा से संबंधित आँकड़े।
(4) अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन (International Publications)
अंतर्राष्ट्रीय संगठनों व विदेशी सरकारों द्वारा अनेक सूचनाएं और आँकड़े प्रकाशित किये जाते हैं जो कि नये अनुसंधानकर्ताओं के लिए अच्छे स्रोत साबित होते हैं। उदाहरणार्थः अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक की रिपोर्ट आदि।
(5) व्यापारिक संघों के द्वारा प्रकाशन (Publications by trade associations)
अनेक बड़े-बड़े व्यापारिक संघों एवं परिषदों द्वारा समय-समय पर आँकड़े प्रकाशित किये जाते हैं। उदाहरणार्थः श्रम संघ, स्टॉक एक्सचेंज, प्रोडक्ट एक्सचेंज, सहकारी समितियां आदि।
(6) अनुसंधान संस्थाओं के प्रकाशन (Publications of Research Institutes)
अनेक अनुसंधान संस्थाएं और विश्वविद्यालय समय-समय पर अपने शोध से संबंधित आँकड़ों का प्रकाशन करते रहते हैं। जो कि नये नये शोधकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। उदाहरणार्थः भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, विश्वविद्यालय शोध संस्थान, केंद्रीय सांख्यकीय संगठन आदि।
(7) व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ता द्वारा प्रकाशन (Personal Publications)
प्रायः अपने-अपने विषयों पर अनेक शोधकर्ता द्वारा शोधकार्य पूर्ण होने पर प्रकाशन किया जाता है। ऐसे अनुसंधानकर्ता द्वारा प्रकाशित समंक भी द्वितीयक समंक के स्रोत के रूप में काम आते हैं।
(8) पत्र-पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशन (Publications by Newspapers and Magazines)
समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं द्वारा समय-समय पर अपने आँकड़े प्रकाशित किये जाते हैं। जिनसे नये अनुसंधानकर्ताओं के लिए अनेक उपयोगी सूचनाएं प्राप्त होती हैं।
(2) अप्रकाशित स्रोत ( Unpublished Sources)
अनेक अनुसंधानकर्ता, विभिन्न उद्देश्यों के लिए सांख्यिकीय संकलन करते हैं जो अनेक कारणों से प्रकाशित नहीं कर पाते अथवा कुछ अप्रकाशित समंक, दफ़्तरों में फ़ाइलों, प्रलेखों, रजिस्टरों आदि में उपलब्ध रहते हैं। अप्रकाशित समंक कहलाते हैं। ये समंक प्रायः निजी प्रयोग हेतु एकत्र किए जाते है। जिसमें कुछ समंकों को कभी-कभी गोपनीय भी रखा जाता है। उदाहरणार्थः व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ताओं के शोध व समंक या आँकड़े सामान्यतः अप्रकाशित स्रोत ही कहलाते हैं। ये आँकड़े सामान्यतः अप्रकाशित रूप में ही प्राप्त होते हैं।
द्वितीयक समंकों के प्रयोग में सावधानियाँ (Precautions in the use of secondary data in hindi)
द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पूर्व किसी भी अनुसंधानकर्ता को बहुत सी बातों का ध्यान रखना चाहिए। द्वितीयक समंकों का प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए। तभी अनुसन्धानकर्ता अपने अनुसंधान में सफल हो सकता है।
इन विषय मे बाउले का मानना है- "प्रकाशित समंकों को बिना उनका अर्थ एवं सीमाएँ जाने, जैसे का तैसा स्वीकार कर लेना असुरक्षित हो सकता है और यह आवश्यक है कि उन आधारपूर्ण तर्कों की आलोचना कर ली जाए।"
इसी तरह कार्नर का मानना है- "अन्य व्यक्तियों द्वारा संकलित समंकों का प्रयोग सावधानी पूर्वक न किया जाए तो निश्चित तौर पर ऐसे समंक प्रयोगकर्ता के लिए ख़तरनाक साबित हो सकते हैं।
द्वितीयक समंकों के प्रयोग करने से पहले क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए? (Dvitiyak samanko ke prayog karne se pahle kya savdhaniyan baratni chahiye?) चलिए बिना देर किए हम आपको निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से बता ही देते हैं -
(1) आँकड़ों के संकलन की जाँच -
यदि खोजकर्ता ने सही योग्यता के साथ कार्य नहीं किया है अर्थात आँकड़ों का संकलन पर्याप्त नहीं है। तब ऐसी स्थिति में बिना जाँच किये द्वितीयक समंकों के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
(2) योग्यता व अनुभव की जाँच -
यह जाँच कर लेनी चाहिए कि द्वितीयक समंक पहले किस अनुसन्धानकर्ता द्वारा प्राथमिक रूप से एकत्रित किया गया था। यदि वह योग्य व अनुभवी हो तभी उन समंकों को द्वितीयक समंकों के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए।
(3) संकलन की रीति -
यह जाँच कर लें कि संकलन की रीति अनुसंधान के लिए उपयुक्त है या नहीं। यदि निदर्शन रीति का प्रयोग भी किया गया है तो वह भी सही ढंग से चुना जाना सुनिश्चित कर लें। अन्यथा द्वितीयक समंको के रूप में प्रयोग करना रिस्क हो सकता है।
(4) संकलन की अवधि -
यदि आँकड़ों का संकलन सामान्य व उपयुक्त अवधि में किया गया हो तो उन आँकड़ों पर विश्वास किया जा सकता है। अन्यथा नहीं। इसीलिये यदि उपलब्ध आँकड़े बहुत पुराने हैं तो उनका उपयोग करना ख़तरनाक हो सकता है।
(5) संकलनकर्ता का पक्षपात -
आँकड़े अधिक विश्वसनीय तभी होते हैं जब संकलनकर्ता द्वारा जाने अनजाने में किसी प्रकार का पक्षपात न किया गया हो। क्योंकि पक्षपात पूर्ण रवैये से प्राथमिक समंकों के सही-सही होने की संभावना न के बराबर होती है।
(6) आँकड़ों की उपयुक्तता -
केवल विश्वसनीयता ही द्वितीयक आँकड़ों के लिए पक्की गारंटी नहीं माना जा सकता। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि आँकड़े वर्तमान समय में अनुसंधानकर्ता के लिए उपयुक्त होने चाहिए।
(7) आँकड़े सजातीय होना चाहिए-
प्राप्त समंकों में सजातीय गुण होना चाहिए। यदि समंकों में सजातीयता का गुण न हो तो उसे प्रयोग में लाना ख़तरनाक साबित हो सकता है। यदि प्राथमिक समंकों के संकलन का प्रयोजन, अनुसंधानकर्ता के वर्तमान प्रयोजन से मिलता-जुलता हो तभी उन समंकों का प्रयोग करना चाहिए।
(8) शुद्धता का स्तर कैसा है-
प्राप्त आँकड़े अनुसंधान की दृष्टि से शुद्ध हैं या नहीं। इस बात की जाँच कर लेनी चाहिए। यदि शुद्धता का स्तर ऊँचा रहा हो तो उन समंकों का प्रयोग विश्वसनीयता के साथ किया जा सकता है। अन्यथा नहीं।
हम उम्मीद करते हैं कि अब आप "समंक क्या होते हैं? समंकों का अर्थ? प्राथमिक और द्वितीयक समंकों के बीच के अंतर" को भलीभाँति समझ चुके होंगे। साथ ही प्राथमिक व द्वितीयक समंकों के संकलन की रीतियां व 'द्वितीयक समंकों के प्रयोग के समय की जाने वाली सावधानियाँ क्या हैं?' के बारे में आप विस्तार से जान चुके होंगे। ऐसे ही और भी महत्वपूर्ण Topics पर हम नियमित रूप से आपके लिए Articles उपलब्ध करने के लिए प्रयासरत हैं।
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