कौटिल्य द्वारा दी गयी अर्थशास्त्र की परिभाषा तथा कौटिल्य के आर्थिक विचार की विवेचना कीजिये | कौटिल्य के आर्थिक विचार पर प्रकाश डालिए | Kautilya ka arthshastra in hindi | Kautilya ke arthshastra par ek sankshipt tippani likhiye.
भारतीय आर्थिक विचारकों में कौटिल्य (kautilya) का स्थान सबसे पहले आता है। इनका दूसरा नाम विष्णुगुप्त भी था। इतिहास में इन्हें चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है। येे चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री और प्रमुख सलाहकार भी थे। इसलिये इन्होंने शासन को अच्छी तरह चलाने के लिए "अर्थशास्त्र" की रचना की थी। इन्होंने अपनी इस पुस्तक में राज्य के शासन, भूमि सुधार, उद्योगों के प्रबंध, व्यापार, सेना, विदेश नीति, करारोपण एवं श्रमिक आदि सभी विषयों का समावेश किया है। इस अर्थशास्त्र को कौटिल्य अर्थशास्त्र (kautilya arthshastra) भी कहा जाता है। जिसके अंतर्गत कौटिल्य ने अपने आर्थिक विचार प्रस्तुत किये।
प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों में प्रमुखतः कौटिल्य का नाम लिया जाता है। आइये इनके विचार क्रमशः जानें-
कौटिल्य के अनुसार अर्थशास्त्र की परिभाषा (kautilya ke anusar arthshastra ki paribhasha)
भारतीय आर्थिक विचारकों में कौटिल्य का स्थान सबसे पहले लिया जाता है। इनका दूसरा नाम विष्णुगुप्त भी था। इतिहास में इन्हें चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है।
कौटिल्य की परिभाषा- "मनुष्य की आजीविका और मनुष्य द्वारा उपयोग में ली जा रही भूमि दोनों को ही अर्थ के नाम से पुकारा जाता है। ऐसी भूमि को ग्रहण करने एवं सुरक्षा से जुड़े साधनों का विवेचन करने वाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहा जाता है।"
इनकी परिभाषा से स्पष्ट होता है कि अर्थशास्त्र का मूल आधार भूमि है। इसका कारण शायद यही है कि उस समय कृषि कार्य को ही आजीविका का प्रमुख आधार माना जाता था। इसीलिये कौटिल्य ने कृषि कार्य का साधन अर्थात कृषि को अर्थशास्त्र का प्रमुख भाग माना।
आर्थिक नियमों एवं उनके प्रतिपादन हेतु कौटिल्य ने अपने समय में जिन तर्कों, सिद्धांतों का उल्लेख किया है। उनके अधिकतर सिद्धांत आज के आधुनिक युग में भी उतने ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। कौटिल्य ने धर्म, अर्थ एवं काम तीनों ही पुरुषार्थों को एक सा महत्व देते हुए समान माना है। कौटिल्य के अनुसार जो भी व्यक्ति इन तीनों में असंतुलन पैदा करता है। तो समझो कि वह अपने दुःखी रहने का कारण स्वयं बनता है।
अर्थशास्त्र कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रंथ है जिसमें राजव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति जैसे विभिन्न विषयों को वर्णित किया गया है। अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, धर्म आदि पर पर्याप्त ज़ोर दिया गया है। इस विषय पर जितने भी ग्रंथ अभी तक लिखे गए हैं उनमें से वास्तविक जीवन का उतनी स्वाभाविकता से वर्णन नहीं किया गया।
इस ग्रंथ के विचार यानी कि कौटिल्य (चाणक्य) के विचार आज की अर्थव्यवस्था पर भी सटीक और विचारणीय लगते हैं।
कौटिल्य के आर्थिक विचारों की विवेचना (Kautilya ke arthik vicharon ki vivechna)
कौटिल्य के आर्थिक विचारों की विवेचना (Kautilya ke arthik vicharon ki vivechna) निम्नानुसार है-
(1) वरत -
कौटिल्य ने अपनी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' में 'वरत' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है "राष्ट्रीय अर्थशास्त्र"। इन्होंने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत कृषि, व्यापार एवं पशुपालन को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत शामिल किया।
(2) करारोपण की व्यवस्था -
कौटिल्य के अनुसार राज्य के व्यय को सुचारू रूप से चलाने के लिए करों की व्यवस्था आवश्यक थी। जिस कारण इन्होंने बाहर से आने वाले उत्पादों पर आयात कर एवं चुंगी शुल्क की व्यवस्था की। देश में उत्पादित वस्तुओं पर कर, पथकर, वनों के प्रयोग पर भी करों के आदेश करना आवश्यक माना गया। राज्य द्वारा निश्चित किये जाने वाले आय और व्यय की सीमा के संबंध में कौटिल्य का मानना था कि राज्य के द्वारा किये जाने वाला व्यय उसकी आय के अनुसार ही तय किया जाना चाहिए।
(3) श्रम कल्याण के संबंध में -
कौटिल्य का मत श्रम कल्याण के विषय में सकारात्मक था। वे चाहते थे कि श्रमिकों की मज़दूरी न्यूनतम जीवन-निर्वाह सिद्धान्त के अनुसार तय होना चाहिए। मज़दूरों के पारश्रमिक की दरें , समय, स्थान तथा उनकी दशाओं को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए।
(4) कृषि के संबंध में -
कौटिल्य के अनुसार राज्य के सभी व्यवसायों को तीन वर्गों में बाँटा गया- (1) कृषि, (2) पशुपालन एवं (3) वाणिज्य। जिसमें कृषि को महत्वपूर्ण माना गया। इसके अंतर्गत कौटिल्य ने सुझाव दिया कि कृषि के विकास के लिए राजा को चाहिए कि वह बेकार भूमि पर किसानों को रहने की अनुमति दे ताकि वे वहां रहते हुए उस बेकार भूमि का सदुपयोग कर सकें। राजा उन्हें बीज तथा बैल आदि की सहायता भी दे। राजा के द्वारा कर्ज और समय-समय पर करों में छूट भी देनी चाहिये। सिंचाई के लिए, तालाबों और कुँओं का निर्माण कराना। बांधों का प्रबंध कराना आदि राजा के अधिकार क्षेत्र और कर्तव्यों में शामिल होना चाहिए।
(5) दास प्रथा के संबंध में -
कौटिल्य दासप्रथा के कट्टर विरोधी थे। उनका मानना था कि दासप्रथा मानवता के विरुद्ध और अवैध है। अपनी पुस्तक में भी इन्होंने कट्टर विरोध किया था। उनका मानना था कि यदि कोई व्यक्ति किसी को अपना दास बनने के लिए विवश करता है तो ऐसी स्थिति में बाध्य करने वाले व्यक्ति को कठोर दंड दिया जाए।
(6) व्यापार व औद्योगिक नीति के संबंध में -
कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में व्यापार व आद्योगिक नीति की विवेचना राज्य की व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए किया। इनका मानना था कि राज्य के विकास और सुदृढ़ता के लिए राज्य के कोष में पर्याप्त धन का होना आवश्यक है। उन्होंने व्यापारिक वस्तुओं पर कर लगाने का सुझाव दिया ताकि राज्य के कोष में धन की पर्याप्त मात्रा में पूर्ति हो सके।
(7) खानों के संबंध में -
खानें चूँकि राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। सोना तथा चांदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ खानों से ही मिलती हैं। कौटिल्य का मानना था कि बड़ी खदानों में लागत कम आती है अतः ये श्रेष्ठता की श्रेणी में आती हैं।
(8) सामाजिक सुरक्षा -
कौटिल्य के अनुसार राज्य को सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से अनेक कार्य जैसे- संकट के समय में गरीबों की सहायता हेतु संस्थाओं की स्थापना, वृद्ध और अपाहिज व्यक्तियों के लिए आश्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए। बेरोज़गार व्यक्तियों के लिए ये उचित रोज़गार का प्रबंध करना अति आवश्यक है। गरीबों और कामगार लोगों को उनके परिश्रम के बदले उचित मज़दूरी दिलाना भी एक महत्वपूर्ण कर्तव्य होना चाहिए।
कौटिल्य के मत से यदि हम समझने का प्रयत्न करेंगे तो पायेंगे कि अर्थशास्त्र का राज्यशास्त्र से घनिष्ठ संबंध होता है, क्योंकि एक विशेष राजव्यवस्था के अंतर्गत ही आर्थिक गतिविधियों का संपादन तथा साधनों का सदुपयोग किया जाता है। यही कारण है कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी एक तरह से राजनीतिक शास्त्र (Political Economy) कहलाता है।
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