आर्थिक गतिहीनता किसे कहते हैं? भारत में आर्थिक गतिहीनता के क्या कारण रहे हैं?

आर्थिक गतिहीनता Economic stagnation का तात्पर्य हम समझना चाहें तो आर्थिक गतिहीनता का अर्थ होता है देश के अंदर रहने वाले व्यक्तियों कि निम्न आय होना। कृषि कि दशा बद्तर होना, उद्योग आदि के हालात निम्न यानि कि दयनीय होना।



अर्थात जब देश में कृषि, उद्योग व जनसंख्या में आय का वितरण निम्न स्तर का होने लगे तब ऐसी स्थिति को आर्थिक गतिहीनता कहा जा सकता है।

अन्य शब्दों में - "जब किसी देश कि प्रति व्यक्ति आय तथा राष्ट्रीय आय स्थिर अथवा गिरती हुई होती है तब ऐसी स्थिति को आर्थिक गतिहीनता कहा जाता है।"


ब्रिटिश शासन के अंत में हमारे देश में कुछ ऐसी ही स्थिति देखने मिली थी। अब एक प्रश्न उठता है कि भारत में आर्थिक गतिहीनता के क्या कारण थे? तो आइये हम आर्थिक गतिहीनता के कारणों की विवेचना करेंगे।

आर्थिक गतिहीनता के कारण (Causes of Economic Stagnation in hindi)

आर्थिक गतिहीनता के कारणों का अध्ययन करें तो ये 2 भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(अ) सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक कारण तथा 
(ब) ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक नीति।

(अ) सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक कारण

भारत में आर्थिक गतिहीनता के कारणों में सामाजिक कारणों के साथ-साथ आर्थिक व सांस्कृतिक कारणों का भी योगदान उतना ही योगदान है। इन कारणों से ही भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई और वह विकास नहीं  हो सका जिसकी उम्मीद की जा सकती थी। आइये हम इन कारणों का विश्लेषण निम्न बिंदुओं के माध्यम से करते हैं-
 
(1) प्राकृतिक साधन एवं तकनीकी जानकारी का अभाव -
ब्रिटिश शासन के समय भारत के प्राकृतिक संसाधनों का कभी भी उचित प्रयोग करने के लिए बढ़ावा नहीं दिया गया। भारत शुरु से ही प्राकृतिक संसाधनों के मामले में संपन्न राष्ट्र रहा है। किन्तु ब्रिटिश शासकों ने इनका उपयोग कभी भी कुशलता से नहीं किया। बल्कि अपने हितों को पूरा करने में ज़्यादा ध्यान दिया। 

(2) जनसंख्या वृद्धि -
आर्थिक गतिहीनता का एक कारण भारत की जनसंख्या भी बतायी जाती है। किंतु सच में देखा जाए तो असली वजह यह है कि बढ़ती जनसंख्या की तुलना में राष्ट्रीय आय में वृद्धि उस अनुपात में नहीं हो पायी। अतः स्पष्ट है कि आर्थिक गतिहीनता का कारण (arthik gatihinta ka karan) जनसंख्या वृद्धि न होकर विकास की दिशा में उचित प्रयास का न होना प्रतीत होता है।




(3) धार्मिक दृष्टिकोण -
भारत की आर्थिक गतिहीनता (Arthik gatihinta) के प्रमुख कारणों में एक कारण भारत की जनता का अत्यधिक धार्मिक होना भी है।  क्योंकि धर्म के चक्कर में भौतिक वस्तुओं से लगाव कम होता है बल्कि परलोक संबंधी बातों पर अधिक विश्वास किया जाता है। 

(4) सामाजिक ढाँचा -
अंग्रेज़ विद्वानों के अनुसार भारत की आर्थिक स्थिति पर संयुक्त परिवार, जाति प्रथा आदि सामाजिक संस्थाओं की वजह से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। परन्तु यह बात पूर्ण रूप से सही नहीं कही जा सकती। सामाजिक संस्थाएँ आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव तभी डाल पाती हैं जब सरकारी नीतियाँ भी उनका साथ दें। अन्यथा इनका प्रभाव भी नगण्य हो जाता जाता है यदि देश का आर्थिक विकास सुचारू रूप से होने लगे।

(ब) ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक नितियाँ

भारत की आर्थिक गतिहीनता के पीछे सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक कारण भले ही ज़्यादा ज़िम्मेदार न हों। लेकिन इस आर्थिक गतिहीनता में ब्रिटिश सरकार की नीतियाँ विशेष रूप से उत्तरदायी हैं। आर्थिक क्षेत्र में सरकार को जो कार्य करने थे, जिन नीतियों को अपनाना था, जिन उपयोगी ढाँचों का निर्माण करवाना था, वह सब नहीं किया गया। जिस कारण आर्थिक गतिहीनता की दशा लगातार उत्पन्न हुई। सीधे शब्दों कहा जाए तो ब्रिटिश शासन का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का रूप देना था। ताकि ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था का भरपूर शोषण किया जाए।



आइये हम भारत मे ब्रिटिश शासन द्वारा चलाई गई औपनिवेशिक नीति व उसके बुरे प्रभावों का अध्ययन करते हैं-

(1) मुक्त व्यापार नीति -
ब्रिटिश शासन ने सिर्फ़ अपने लाभ के लिए भारत में भी मुक्त व्यापार नीति लागू की। जिसके परिणामस्वरूप इंग्लैंड की मशीनों का बना सस्ता माल यहाँ आने लगा जिस कारण यहाँ के उद्योग प्रतियोगिता से बाहर हो गए। और यह देश केवल खेतिहर देश बनकर रह गया।

(2) नवीन भूमि व्यवस्था -
अंग्रेज़ों ने परंपरागत भूमि व्यवस्था के स्थान पर ब्रिटिश सामंतवादी व्यवस्था लागू कर दी। इसके अंतर्गत लगान वसूलने का कार्य ज़मींदारों को दिया गया। इन ज़मींदारों का केवल यही उद्देश्य होता था कि कृषकों से ऊँचा लगान कैसे वसूला जाए चाहे फसल कैसी भी हो। लगान की दर पर कोई नियंत्रण ही नहीं था। इस तरह इन ज़मींदारों द्वारा किसानों का शोषण किया जाता था। 

किसानों के विकास की चिंता किसी को नहीं थी। फलस्वरूप कृषि उत्पादन कम होता चला गया। ऊँची लगान के कारण किसान, ज़मीदारों व महाजनों के ऋणी हो गए। जिस कारण किसानों की भूमि इन महाजनों व ज़मीदारों के पास पहुँच गयी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि देश में भूमिहीन किसानों की संख्या लगातार बढ़ती गयीं।

(3) कृषि का व्यवसायीकरण -
ब्रिटिश नीति का प्रमुख प्रभाव यह पड़ा कि देश की कृषि का व्यवसायीकरण हो गया। "कृषि का व्यवसायीकरण का अर्थ होता है ऐसी खेती अथवा कृषि जिसके अंतर्गत किसान अपने या अपने परिवार के लिए ज़रूरी फसलों के स्थान पर ऐसी फसलों को प्राथमिकता देते हैं जो देशी व विदेशी बाज़ारों में अधिक मूल्य में बेची जा सके।"



कृषि के व्यावसायीकरण के कारण किसान खाद्यान फसलों (गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि) के स्थान पर नकदी फसलों (चाय, नील, कपास, गन्ना आदि) का उत्पादन करने लगे। जिनका सीधा-सीधा फ़ायदा ब्रिटिश उद्योगों को होने लगा। कृषि के व्यवसायीकरण के कारण ग़रीबी व ऋणग्रस्तता बढ़ती चली गयी। जोतों का उपविभाजन व विखंडन होने लगा। खाद्यान्न फसलों की कमी के कारण अकाल पड़ने लगा। साहूकार, महाजन व व्यापारी वर्ग और भी धनी होने लगा तथा कमज़ोर कृषक व खेतिहर मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ने लगी।

(4) दस्तकारी व कुटीर उद्योगों का पतन -
ब्रिटिश शासन ने भारतीय पारम्परिक उद्योगों को नष्ट कर दिया। बल्कि उनके स्थान पर किसी अन्य उद्योगों की स्थापना भी नहीं की। तकनीकी शिक्षा, प्रशिक्षण, पूँजी जैसी आवश्यक सुविधाएं देने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की। परिणामस्वरूप देश के अंदर बेरोज़गार बढ़ गयी। साथ ही कृषि पर लोगों की निर्भरता बढ़ गयी। ब्रिटिश सरकार ने जिन उद्योगों की भारत मव स्थापना की थी। उनका उद्देश्य ब्रिटिश निवेशकों को कम से कम समय में अधिक लाभ दिलाना था। इसलिए आधारभूत या भारी उद्योगों की यहाँ स्थापना नहीं की गयी।

(5) आर्थिक निष्कासन -
ब्रिटिश नीतियों के कारण आर्थिक निष्कासन होने लगा। आर्थिक निष्कासन का अर्थ होता है स्वदेशी साधनों का दूसरे देश को बड़ी मात्रा में अंतरण। भारत से प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों को कर, ब्याज़, लाभ, उपहार, कर्मचारियों के वेतन, बीमा, परिवहन व्यय आदि के रूप में इंग्लैंड पहुँचाया जाता था। इतना ही नहीं, बल्कि कंपनी अथवा ब्रिटिश शासन के साथ जब भी किये गए। उनके ख़र्चों का भुगतान भी भारत को ही करना पड़ा। यदि इन्हीं साधनों को भारत के विकास में लगाया जाता तो इस भारतीय अर्थव्यवस्था का भलीभाँति विकास संभव हो पाता।


स्पष्ट है कि देश की आर्थिक गतिहीनता व ग़रीबी का प्रमुख कारण ब्रिटिश शासन की औपनिवेशिक नितियाँ थीं। जिन नीतियों का मुख्य उद्देश्य केवल ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचाना था, ना कि भारतीय अर्थव्यवस्था को।

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