कृषि विपणन से तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से लगाया जाता है, जिनका सम्बन्ध कृषि उत्पादन का किसान के खेत से अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचाने में किया जाता है।
देश की राष्ट्रीय आय, रोज़गार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में कृषि की सशक्त भूमिका को नकारा नही जा सकता। अब तो आप भारतीय कृषि की महत्वता का अनुमान लगा ही सकते हैं।
भारतीय कृषि से देश की अर्थव्यवस्था की गति तब और भी तेज़ गति से चलने लगती है जब कृषि से प्राप्त उपज की देखभाल और सही क़ीमत पर उपभोक्ता तक पहुँचाने का प्रबंध सही ढंग से हो। कृषि विपणन से क्या आशय है? तो आइये हम सरल शब्दों में जानने का प्रयास करते हैं कि कृषि विपणन का क्या अभिप्राय है?
अनुक्रम 👇
• कृषि विपणन का अर्थ एवं परिभाषा
• कृषि विपणन की प्रमुख समस्याएं /दोष
• कृषि विपणन की समस्याओं को दूर करने के उपाय
• भारत में कृषि उपज के विपणन अन्य व्यवस्थाएँ
कृषि विपणन का अर्थ एवं परिभाषा
कृषि विपणन से तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से है, जिनका सम्बन्ध कृषि उत्पादन का किसान के खेत से अन्तिम ग्राहकों तक उपलब्ध करने में प्रयुक्त की जाती हैं।
कृषि विपणन (Agricultural marketing) के अन्तर्गत वे सभी सेवाएँ जानी जाती हैं जो कृषि उपज को खेत से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचाने में करनी प्रयुक्त होती हैं।
प्रो. अबाॅट के अनुसार- ‘‘कृषि विपणन के अंतर्गत उन समस्त क्रियाकलापों को सम्मिलित किया जाता है जिनके द्वारा खाद्य पदार्थ एवं कच्चा माल, फार्म (उत्पादन क्षेत्र) से उपभोक्ता तक पहुँचता है।’’
ए. पी. गुप्ता के अनुसार- ‘‘कृषि विपणन से तात्पर्य उन कार्यों क्रियाओं और सेवाओं को करने से है। जिनके द्वारा मूल उत्पादक तथा अन्तिम उपभोक्ता के मध्य वस्तुओं के लेन-देन का सम्बन्ध स्थापित हेाता है।’’
प्रो. कोल्स एवं उल के अनुसार ‘‘ विपणन कार्यों से तात्पर्य उन प्रमुख विशिष्ट क्रियाओं को करने से हैं, जो विपणन कार्य, वस्तुओं की विपणन प्रक्रिया की प्रमुख आर्थिक क्रिया है।
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भारत में कृषि विपणन की प्रमुख समस्याएँ | कृषि विपणन के दोष
भारत में कृषि विपणन का विशेष महत्व है किंतु कृषि विपणन के क्षेत्र में कुछ समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। आइये जानते हैं कि ये कृषि विपणन की समस्याएँ क्या है?
1. मध्यस्थों की अधिकता -
भारत में कृषि विपणन के क्षेत्र में यदि देखा जाए तो कृषकों एवं उपभोक्ताओं के बीच मध्यस्थों की एक लंबी श्रृंखला होती है। जिसमें गाँव का साहूकार, महाजन, घूमता-फिरता व्यापारी, कच्चा आढ़तिया, पक्का आढ़तिया, थोक व्यापारी, मील वाला, दलाल, फुटकर व्यापारी आदि सभी शामिल होते हैं। विशेष बात यह है कि इन सभी के द्वारा कुछ लाभ अवश्य लिया जाता है। परिणामस्वरूप उपभोक्ता द्वारा लिए जाने वाले मूल्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यही मध्यस्थ ले लेते हैं।
2. मंडियों की कुरीतियाँ -
भारत में बहुत सी मंडियां अभी भी नियमित नहीं हैं। इन अनियमित मंडियों में अनेक तरह की अनियमितताएं देखी जाती हैं जैसे- तराज़ू-बाट में गड़बड़ी होना, उपज के एक अच्छे भाग को नमूने के रूप में निकाल लिया जाना, मूल्य का निर्धारण करने आढ़तियों व क्रेताओं के हाथ में होना, दलाल का सदा क्रेता के पक्ष में कार्य करना, विवाद की स्थिति में किसान के हितों की रक्षा करने वाला इन मंडियों में कोई न होना। इस प्रकार की अनियमितताओं को हम भारत में कृषि विपणन का दोष कह सकते हैं।
3. बाज़ार व्ययों में अधिकता -
अनियमित मंडियों में कृषकों से ऐसे अनेक प्रकार के व्यय लिए जाते हैं जो उन्हे देना अनिवार्य माना जाता है जैसे- आढ़त, तुलाई, दलाली, पल्लेदारी आदि। इन व्ययों के अतिरिक्त उनसे और भी व्यय वसूल किये जाते हैं जैसे- धर्मादा, गौशाला, रामलीला, धर्मशाला, महतर, मुनीम, करदा आदि।
4. श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण का अभाव -
भारतीय मंडियों में जो कृषि उत्पाद बिकने के लिए आते हैं, वे प्रायः अवर्गीकृत व अप्रत्याशित होते हैं। बहुत से कृषकों द्वारा जानबूझकर मिट्टी या अन्य ऐसी ही मिलावट करके वस्तुओं को बेचने के लिए लाया जाता है। परिणामस्वरूप कृषक को अपनी उपज का मूल्य कम ही मिलता है। प्रामाणिक तौर पर देखा जाए तो देश में श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण करने वाली संस्थाओं की कमी है।
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5. भंडार सुविधाओं का अभाव -
भारत में ऐसे भंडार जहाँ पर किसान अपनी उपज को कुछ समय के लिए रख सके और भाव अपने हित में आने तक प्रतीक्षा कर सके, बहुत कम हैं। गाँवों में किसानों की जो अपनी निजी भंडार सुविधाएँ हैं, उनमें रक्ती, कोढे, मिट्टी व बाँस के बने बर्तन आदि हैं। जिनमें कीटाणुओं व सीलन आदि से उपज की सुरक्षा नहीं हो पाती है। फलस्वरूप कृषक को अपनी उपज को शीघ्र ही बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
कृषि विपणन की समस्याओं को दूर करने के उपाय
भारत में कृषि विपणन की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा निम्न कदम उठाए गए हैं -
1. नियमित मंडियों की स्थापना -
कृषि विपणन की समस्याओं से बचने के लिए सबसे प्रमुख उपाय नियमित मंडियों की स्थापना है। जहाँ पर किसान अपनी उपज को उचित मूल्य पर बेच सके। आज देश में लगभग 7062 मंडियां काम कर रही हैं।
2. श्रेणी विभाजन एवं प्रमापीकरन -
कृषि पदार्थों की श्रेणी विभाजन व प्रमापीकरण हो जाने से विदेशी बाज़ार में ख्याति बढ़ती है तथा किसान को उचित मूल्य मिल जाता है। बाज़ार का विस्तार होता है। तथा उपज की किस्म में उन्नति होती है। अतः अधिकाधिक कृषि पदार्थों के लिए प्रमाप स्थापित किए जाने चाहिए। इन संबंध में सरकार द्वारा कृषि उपज अधिनियम पारित किया है।
3. प्रमाणित बाट एवं नाप-तौल -
कृषि विपणन में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि प्रमाणित बाट व नाप तौल काम में लायी जाए जिससे कि कृषक के साथ धोखा न किया जा सके। इस संबंध में मीट्रिक प्रणाली अपनायी गयी है।
4. विपणन सूचनाओं का प्रकाशन -
विपणन सूचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण किया जाना चाहिए। जिससे कि कृषक को कृषि पदार्थों मूल्य व संबंधित बातों की जानकारी हो सके और उसको धोखा न दिय्या जा सके। इसके लिए हाल ही में अखिल भारतीय बाज़ार समाचार सेवा का भी गठन किया गया है।
5. भंडार ग्रहों की सुविधा -
कृषि पदार्थों के उचित विपणन के लिए भंडार ग्रहों की सुविधा बहुत ही आवश्यक है जिससे कि बचत को उचित रूप से सुरक्षित रखा जा सके और कृषि उपज के मूल्यों में स्थायित्व लाया जा सके। इसके लिए खाद्यान्न भंडार क्षमता को बढ़ाने की आवश्यकता है।
भारत में कृषि उपज के विपणन की अन्य व्यवस्थाएँ
भारत में कृषि विपणन व्यवस्था के अंतर्गत और भी अन्य व्यवस्थाएं की जाती हैं।
1. गाँवों में बिक्री -
किसान अपनी उपज का बहुत बड़ा भाग गाँवों में ही साहूकारों, महाजनों, बनियों, घूमते-फ़िरते व्यापारियों, पैठों व हाटों में ही बेच देते हैं। लेकिन आज परिवहन के साधनों के विकास, नियमित मंडियों में वृद्धि, सह विपणन की जानकारी, ग्रामीण विकास एवं चेतना तथा साहूकारों के प्रभाव में कमी होने से कृषि वस्तुओं की गाँवोँ में बिक्री में कुछ कमी आ गयी है।
2. मेलों में बिक्री -
भारत मेलों के लिए सुविख्यात है। यहाँ लगभग 1700 मेले कृषि पदार्थ व पशुओं के लगते हैं। जिनमें लगभग 40% मेले कृषि पदार्थों के होते हैं जो मुख्यरूप से बिहार व उड़ीसा में पाए जाते हैं। मेले के स्थानों के आस पास के कृषक इन्हीं मेलों में अपनी उत्पत्ति को बेच देते हैं।
3. मंडियों में बिक्री -
मंडियों से तात्पर्य, उन स्थानों से है जहाँ थोक मात्रा में कृषि पदार्थों का क्रम एवं विक्रय होता है। यह मंडियां दो प्रकार की होती हैं- (१) नियमित मंडी एवं (२) अनियमित मंडी।
कृषि उपज का विपणन इन मंडियों के माध्यम से तय किया जाता है। नियमित मंडियों की स्थापना राज्य सरकार के नियमों के अनुसार होती है जहाँ पर उपज बेचने के निर्धारित नियम होते हैं। प्रायः यहाँ किसान से कुछ भी व्यय वसूल नहीं किया जाता है। सारे व्यय क्रेता से ही वसूल किये जाते हैं। यहाँ उपज की बिक्री नीलामी के आधार पर होती है तथा बिक्री मूल्य माल उठाते ही मिल जाता है।
अनियमित मंडियों की बात करें तो इन बिक्री के नियम निश्चित नहीं होते हैं तथा बिक्री आढ़तिया के माध्यम से होती है। यह आढ़तिया दलालों के माध्यम से उपज को बेच देता है। आढ़तिया बिक्री मूल्य में से अपनी आढ़त व अन्य ख़र्चे काटकर शेष राशि का भुगतान किसान को कर देता है।
4. सहकारी समितियों के माध्यम से बिक्री -
सहकारी समितियां अपने सदस्यों से कृषि उत्पादन एकत्रित करती है और फ़िर उसको ले जाकर बड़ी-बड़ी मंडियों में बेचती है। ऐसा करने से उनके सदस्यों को अपनी उपज का उचित मूल्य मिल जाता है। आज लगभग 9000 सहकारी समितियाँ काम रही हैं। जिनके माध्यम से कृषकों को अपनी उपज को बेचकर उसकी सही क़ीमत प्राप्त कर पाते हैं। सही मायने में कहा जाए तो कृषि उत्पादों के विपणन का सही तरीका यही है।
5. सरकारी ख़रीद -
विगत कुछ वर्षों से सरकार द्वारा भी कृषि उपजों को क्रय किया जा रहा है। इसके लिए सरकार स्थान-स्थान पर कुछ ख़रीदी केंद्र स्थापित कर देती है। जहाँ पर किसान अपनी उपज लाकर निर्धारित मूल्य पर बेच सकते हैं। सरकार यह ख़रीदी (१) स्वयं अपने कर्मचारियों के माध्यम से, (२) स्वयं अपने कर्मचारियों के माध्यम से, (३) भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से करती है।
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