प्रतिकूल भुगतान संतुलन क्या है? | प्रतिकूल भुगतान संतुलन के कारण व इसे सुधारने के उपाय

भुगतान असंतुलन - (भुगतान असंतुलन का अर्थ, भुगतान असंतुलन के कारण तथा इसे ठीक करने के उपाय)




अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में प्रत्येक देश किसी न किसी रूप में अन्य देशों के साथ जुड़ा होता है। यदि दूसरे देशों से आयात कर रहा हो, तो उसे आयात के बदले में भुगतान करना होता है। जिसे कि देनदारी कहा जाता है। और यदि निर्यात कर रहा हो तो, निर्यात के बदले वह दूसरे देशों से भुगतान प्राप्त करता है। जिसे कि लेनदारी कहा जाता है।

किसी देश का भुगतान संतुलन तब कहा जा सकता है जब उस देश की लेनदारी, उसकी देनदारी से अधिक हो जाए। अर्थात लेनदारी और देनदारी में अंतर होना ही प्रतिकूल भुगतान संतुलन (pratikul bhugatan santulan कहलाता है। आइये भुगतान असंतुलन/प्रतिकूल भुगतान संतुलन को विस्तार से जानते हैं।


प्रतिकूल भुगतान संतुलन क्या है? (Pratikul bhugatan santulan kya hai?)

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की दृष्टि से देखा जाए, तो जब आयात की मात्रा, निर्यात से अधिक हो जाती है तब इन मदों के अंतर्गत किसी राष्ट्र की देनदारियों व लेनदारियों में अंतर उत्पन्न हो जाता है। परिणामस्वरूप भुगतान संतुलन प्रतिकूल हो जाता है। इसे ही प्रतिकूल भुगतान संतुलन (Pratikul bhugtan santulan) अथवा भुगतान असंतुलन (Bhugtan asantulan) कहा जाता है।

किसी राष्ट्र के आयात उसके निर्यातों से अधिक हो जाने पर उस राष्ट्र का व्यापार संतुलन प्रतिकूल हो जाता है। जिस कारण विदेशों को भेजी जाने वाली ब्याज़ तथा लाभांश की राशि, यात्रा परिवहन, बीमा, शिक्षा, चिकित्सा, दूतावासों आदि मदों के अंतर्गत किये जाने वाले भुगतान प्राप्तियों की अपेक्षा कम होने पर चालू खाते में भुगतान संतुलन प्रतिकूल हो जाता है। आइये भुगतान संतुलन की असमानता के कारण जानते हैं। 


भुगतान संतुलन में प्रतिकूलता के कारण | भुगतान असंतुलन के कारण | Bhugtan Asantulan ke karan

भारत में भुगतान संतुलन में प्रतिकूलता के कारण (bharat me bhugtan santulan me pratikulta ke karan) निम्न हो सकते हैं-

(1)  जनसंख्या में वृद्धि -
भारत में जनसंख्या की वृद्धि दर बहुत अधिक है। जिसके कारण आयात की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। व दूसरी ओर घरेलू उपभोग में वृद्धि होने से निर्यात क्षमता कम हो जाती है। इसके फलस्वरूप भुगतान शेष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।  

(2) पूंजीगत वस्तुओं का आयात -
किसी राष्ट्र का भुगतान संतुलन उसके आर्थिक विकास की अवस्था पर निर्भर करता है। यदि राष्ट्र विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। तो उसके भुगतान संतुलन में घाटा होगा। क्योंकि कच्चे माल, मशीनरी, पूँजी, उपकरण और विकास क्रिया से संबंधित सेवाओं का आयात करता है। और प्राथमिक उत्पादन निर्यात करता है।

जिस कारण उस राष्ट्र को आयात के बदले भुगतान अधिक करना पड़ता है। और सस्ते निर्यातों के बदले प्राप्ति कम होती है। इससे भुगतान संतुलन में असाम्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(3) बाह्य ऋणों का बोझ -
प्रतिकूल भुगतान शेष का एक कारण यह भी है कि देश पर बाह्य ऋणों का भारी बोझ है। जिसके कारण प्रतिवर्ष बहुत अधिक मात्रा में ब्याज़ का भुगतान करना पड़ता है।

(4) खाद्यान्नों का आयात -
आज़ादी के बाद काफ़ी वर्षों तक खाद्यान्नों का बड़ी मात्रा में आयात किया जाता रहा है। अब कुछ वर्षों से इस दिशा में सुधार हुआ है। परंतु आज भी कोई प्राकृतिक विपत्ति जैसे- सूखा आदि के जाने पर हमें खाद्यान्नों, वनस्पति तेलों आदि का बड़ी मात्रा में आयात करने पड़ता  है। परिणामस्वरूप भुगतान संतुलन में प्रतिकूलता बढ़ जाती है।




(5) चक्रीय असंतुलन -
व्यापार चक्र के कारण उत्पन्न असंतुलन को चक्रीय असंतुलन कहते हैं। व्यापार चक्र किसी राष्ट्र के उत्पादन तथा आया को प्रभावित करते हैं। मुद्राके प्रसार काल में आय में वृद्धि तथा संकुचन के काल में आय में कमी होती है। जिससे आयात विशेष रूप से प्रभावित होता है। 

निर्यात पर चक्रीय प्रवृत्ति का प्रभाव नहीं पड़ता है। क्योंकि निर्यात मुख्यतः विदेशी माँग पर निर्भर करते हैं। यानी कि आय अधिक होने पर आयात में माँग, निर्यात की अपेक्षा बढ़ जाती है। जिस कारण भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो जाता है।

(6) एक पक्षीय भुगतान -
कुछ एक पक्षीय भुगतान जैसे- विदेशों को मुआवजा या दंडका भुगतान, प्रवासियों द्वार किये गए अंतरण, विदेशों को दिए गये दान, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के चंदे इत्यादि भी अत्यधिक होने पर भुगतान संतुलन को प्रतिकूल कह सकते हैं।

(7) स्फीति होना -
भुगतान संतुलन में असंतुलन होने का एक कारण स्फीति है। जिनके कारण निर्यातों की कीमतें बढ़ती हैं। जिस कारण निर्यात कम हो जाते हैं। साथ ही आयातों की माँग बढ़ जाती है। इस प्रकार आयातों में वृद्धि और निर्यातों में कमी हो जाने से भुगतान संतुलन में प्रतिकूलता आ जाती है।

(8) उपभोक्ता रुचि में परिवर्तन -
कुछ चिरकालिक या आधारभूत असंतुलन उपभोक्ताओं की रुचि में परिवर्तनों के फलस्वरुप उत्पन्न होते हैं। राष्ट्र के अंदर निवास करने वाले उपभोक्ताओं की रुचि में परिवर्तन होने से विदेशों से किये जाने वाले आयातों और निर्यातों में भारी अंतर देखे जाते हैं। जो कि भुगतान असंतुलन का कारण बनते हैं।


प्रतिकूल भुगतान संतुलन को ठीक करने के उपाय | bhugtan asantulan ko thik karne ke upay

प्रतिकूल भुगतान संतुलन को सुधारने के उपाय (pratikul bhugtan santulan ko sudharne ke upay) निम्न हैं-

(1) निर्यातों में वृद्धि करना -
प्रतिकूल भुगतान संतुलन को सुधारने के लिए यह आवश्यक है कि देश के निर्यातों में अधिकाधिक वृद्धि की जाए। जिससे अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सके। इसके लिए भारतीय उत्पादों को उच्च गुणवत्ता, निम्न लागत, आकर्षक पैकिंग आदि से सुसज्जित करने की  आवश्यकता है।

(2) आयातों में कमी करना -
भुगतान संतुलन की प्रतिकुलता को दूर करने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि देश के आयातों में कमी की जाए। इनके लिए नए आयात कर लगाये जाएं तथा पुराने आयात करों में वृद्धि की जाएं। देश के आयातों को कोटा प्रणाली द्वारा कम किया जाए।




(3) मुद्रा अवमूल्यन -
इस उवाय द्वारा एक देश अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करता है।जिसके अंतर्गत विदेशी मुद्राओं की तुलना में अपने देश की मुद्रा का मूल्य कम कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप निर्यात सस्ते हो जाते है। तथा निर्यातों की मात्रा में वृद्धि होती है। देश में आयातों के कम होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। 

(4) विदेशी निवेश को प्रोत्साहन करना -
देश के प्रतिकूल भुगतान संतुलन को दूर करने के लिए सरकार द्वारा विदेशी निवेशकों को प्रोत्साहित किया जाता है। और उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार की सुविधाएँ तथा रियायतें प्रदान की जाती हैं। इसका उद्देश्य विदेशी निवेशकों को आकर्षित करना है।

(5) विदेशी पर्यटकों को प्रोत्साहन -
यदि राष्ट्र में पर्याप्त संख्या में विदेशी पर्यटक आते हैं तो राष्ट्र को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। और कुछ न कुछ सीमा तक प्रतिकूल भुगतान शेष को ठीक करने में सहायता मिलती है।

(6) अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से ऋण प्राप्ति -
एक राष्ट्र भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए विदेशों से ऋण प्राप्त करता है। तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को भी गतिशील किया जाता है। जिससे कि उनसे भी ऋण प्राप्त हो सके। प्राप्त ऋण के उपयोग देश के विकास कार्यों एवं ऋण अदायगी के रूप में किया जाता है।

(7) विनिमय नियंत्रण -
सरकार द्वारा विदेशी विनिमय नियंत्रण का उपाय भी काम मे लिया जाता है। इससे आयात व निर्यात पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है। निर्यातकों द्वारा अर्जित विदेशी मुद्रा को राष्ट्रीय मुद्रा में परिवर्तित किया जाता है। इसी प्रकार जो आयात किये जाते हैं। 

उनके भुगतान के लिए विदेशी मुद्रा का परमिट भी सरकार से प्राप्त करना पड़ता है। सरकार द्वारा प्रदान की गई विदेशी मुद्रा से ही आयातों का भुगतान करना संभव हो सकता है। इस उपाय से अनावश्यक विलासिता की वस्तुओं आदि के आयातों पर प्रतिबंध लगता है।

आपने इस अंक में भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता (Bhugtan santulan ki pratikulta) को सरल व स्पष्ट शब्दों में जाना। साथ ही प्रतिकूल भुगतान संतुलन के कारण और इसे सुधारने के उपाय के बारे में जाना। उम्मीद है यह अंक आपके अध्ययन में अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा।


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