भारत में कृषि ऋण के संस्थागत स्रोत क्या हैं? | Bharat me krishi vitta ke srot kya hain?

भारत में कृषि के संस्थागत स्रोतों पर प्रकाश डालिए | भारत में संस्थागत ऋण के स्रोत क्या हैं? समझाइए | कृषि विकास के लिए संस्थागत स्रोतों की विवेचना कीजिए।



भारतीय अर्थव्यवस्था शुरुआती दौर से ही कृषि पर आश्रित रही है। आज भी भारत की अधिकतम जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। भारतीय कृषि के निम्न स्तर का होने का कारण देखें, तो उन समस्त प्रमुख कारणों में से एक प्रमुख कारण कृषि वित्त की समस्या रही है। यानि कि कृषि कार्य के लिए धन की कमी ज़्यादातर किसान भाइयों के लिए प्रमुख समस्या बनकर उभरती है।

हालांकि अब कृषि वित्त के संस्थागत स्रोत (krishi vitta ke sansthagat srot) के रूप में विभिन्न बैंकों, समितियों व संस्थाओं ने आगे आकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं और वर्तमान में कृषि कार्य हेतु सस्ती ब्याज़ दर पर ऋण उपलब्ध कराती हैं। इस अंक में हम कृषि साख के मुख्य संस्थागत स्रोत कौन से हैं? (krishi sakh ke mukhya sansthagat srot koun se hain?) जानेंगे।

भारत में कृषि वित्त के प्रमुख स्रोत (krishi vitta ke pramukh srot) निम्नलिखित हैं-

1. सहकारी साख समितियाँ -
कृषि वित्त के लिए संस्थागत स्रोतों में सहकारी साख समितियों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। किसानों को ग्रामीण साहूकारों के शोषण से मुक्ति दिलाने तथा कृषि की क्रियाकलापों के संचालन के लिए पर्याप्त और सस्ती ब्याज़ दर पर ऋण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सहकारी साख समितियों का विकास किया गया है। इस मामले में सहकारी साख समितियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

2. भूमि विकास बैंकों  की भूमिका -
बैंक किसानों की दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। ये बैंक भूमि ख़रीदने, पुराने ऋणों का भुगतान करने, बंधक रखे मकान या भूमि को छुड़ाने, भूमि पर स्थायी सुधार करने तथा महँगे कृषि यंत्रों आदि के लिए सस्ती दर पर लम्बी अवधि के लिए ऋण प्रदान करते हैं।


3. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक -
भारतीय कृषि साख की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु 26 सितम्बर, सन् 1975 को एक अध्यादेश जारी किया गया था, जिसके अन्तर्गत 50 क्षेत्रीय बैंकों की स्थापना की गई। क्षेत्रीय ग्रामीण बँक, ग्रामीण क्षेत्र के कमजोर वर्गों, लघु किसानों, भूमिहीन कृषि मजदूरों, दस्तकारों एवं लघु उद्यमियों को समयानुसार सफलतापूर्वक उचित मात्रा में ऋण उपलब्ध कराकर ग्रामीण विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

4. व्यापारिक बैंकों की भूमिका -
जुलाई 1969 में प्रमुख 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण हो जाने से इन बैंकों ने कृषि के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय व्यापारिक बैंकों ने कृषि कार्य के लिए तेज़ी से ऋण देना आरंभ किया है। बैंकों द्वारा हल, बैल, पम्प सैट, ट्रैक्टर एवं रासायनिक खादों के लिए ऋण उपलब्ध कराये जाते हैं।


5. सरकार -
राज्य सरकारों द्वारा भी कृषि के लिए वित्त व्यवस्था की जाती है। यह व्यवस्था सामान्यतया भूमि सुधार ऋण अधिनियम 1883 व कृषक ऋण अधिनियम 1884 के अन्तर्गत की जाती है।


6. भारतीय स्टेट बैंक -
भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी स्थापना के समय से ही कृषि वित्त उपलब्ध कराने के लिए निम्नानुसार प्रयास किया है -
( i ) सहकारी समितियों को ऋण,
( ii ) धनराशि भेजने के लिए निःशुल्क सेवा,
( iii ) गोदामों के लिए ऋण,
( iv ) भूबन्धक बैंक की स्थापना,
( v ) कृषकों को प्रत्यक्ष ऋण,
( vi ) भण्डार निगमों की रसीद पर ऋण,
( vii ) शाखाओं का विस्तार किया है।


7. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की भूमिका -
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया कृषकों को प्रत्यक्ष रूप से कोई वित्तीय सहायता प्रदान नहीं करती है। यह राज्य सहकारी बैंकों के माध्यम से ही कृषकों तक सहायता पहुँचाती रही है। यह बैंक वित्तीय सहायता दो रूपों में देती थी -
( i ) बिलों की पुनर्कटौती के रूप में एवं ( ii ) अग्रिम के रूप में। अब यह कार्य राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक को हस्तान्तरित कर दिये गये हैं ।

8. राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंकों की भूमिका -
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक 12 जुलाई, सन् 1982 को स्थापित की गयी है। इस बैंक का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में कृषि, लघु व कुटीर उद्योग, दस्तकारी एवं ग्रामीण कला के विकास के लिए वित्तीय सुविधा प्रदान करना है। इस बैंक को कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम के समस्त कार्य तथा वे सभी कार्य सौंपे गये हैं जो रिजर्व बैंक के कृषि साख विभाग द्वारा किये जाते थे। इस बैंक ने अपने प्रथम वर्ष से ही प्रशंसनीय कार्य किया है।


Some more topics :


Reactions

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ