व्यापारिक बैंकों के दोष एवं सुधार हेतु उपाय | Demerits and Suggetions of Commercial Banks in hindi

व्यापारिक बैंकों के दोष एवं सुझाव (Vyaparik bank ke dosh evam sujhav 

आधुनिक अर्थव्यवस्था में समाज की सम्पूर्ण आर्थिक प्रगति का स्थायी आधार बैंक है। व्यावसायिक हो या औद्योगिक क्षेत्र हो। व्यापारिक बैंकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में अपना वर्चस्व स्थापित किया है। भारत में व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात भारतीय बैंकों ने महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित की हैं। इन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को वह गति प्रदान की है जिसकी आवश्यकता थी। किन्तु अनेक क्षेत्रों में ये बैंक असफल भी रहे हैं। कुछ क्षेत्रों में इन व्यापारिक बैंकों की असफलताएं (Vyaparik bankon ki asafaltayen भी सामने आयी हैं।




भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापारिक बैंक के कार्य निसंदेह जनता के लिए फ़ायदेमंद साबित हुए हैं। किन्तु कुछ कठिनाइयां भी अवश्य दिखाई देती हैं जिनमें सुधार की आवश्यकता है। इस अंक में हम वाणिज्यिक बैंको की असफलताएं एवं सुधार हेतु सुझाव (Vanijyik bankon ki asafaltayen evam sujhav) के बारे में अध्ययन करेंगे।

• व्यापारिक बैंक, अर्थ एवं कार्य। Commercial Bank Meaning, Definition and Functions in hindi



व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक बैंकों के दोष (Demerits of commercial banks in hindi)

व्यापारिक बैंकों के प्रमुख दोष (Vyaparik bankon ke pramukh dosh) निम्नलिखित हैं -

1. जनता को आकर्षित करने में असफल -
चूंकि बैंकों में अधिकांश कार्य अंग्रेज़ी भाषा में किया जाता है, जिस कारण ऐसे लोग जिन्हें अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं है उन्हें देश की इन बैंकिंग सुविधाओं के प्रति कोई ख़ास आकर्षण नहीं जान पड़ता है। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय व्यापारिक बैंक जनता की जमाओं को आकर्षित करने में अधिक सफल नहीं रहे हैं।

2. क्षेत्रीय विषमता की समस्या -
भारत में व्यापारिक बैंकों द्वारा किया गया शाखा विस्तार पूरी तरह असंतुलित रहा है । भारत में बैंकों की शाखा की बात की जाए तो भारत के प्रत्येक प्रदेश में बैंकों की शाखाओं की संख्या वहां की जनसंख्या की तुलना में कम ही है। सम्पूर्ण भारत की बात अगर की जाए तो एक ही राज्य में जहाँ कुछ ज़िलों में बैंक शाखाएँ अधिक हैं, तो वहीं अन्य ज़िलों में शाखाएं बहुत कम हैं। देश के सुदूर राज्यों (मणिपुर, मिजोरम, असम, अरुणाचल प्रदेश आदि) में अधिकांश गाँव आज भी बैंकिंग सेवाओं से वंचित हैं। अतः कहा जा सकता है कि देश में बैंकिंग शाखाओं के मामले में क्षेत्रीय विषमताएं आज भी व्याप्त हैं।


3. बैंकिंग सुविधाओं का कम होना -
अर्थव्यवस्था में व्यापारिक बैंकों से मिलने वाली सुविधाओं की बात करें तो अन्य देशों की तुलना में भारत में कम बैंकिंग सुविधाएं उपलब्ध हैं। जिस कारण जनता को इन बैंकों से उचित समय पर पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिल पाती। अधिकांश व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों को कुशल एवं शीघ्र सेवाएं देने में असफल रहे हैं। 

4. ऋणों की अदायगी कठिनाई -
कुछ बैंक अपर्याप्त मात्रा में जमानत रखकर, आवश्यकता से अधिक ऋण प्रदान कर देते हैं। परिणाम यह होता है कि जब ऋणों की अदायगी करनी हो तो इस प्रक्रिया में भारी मशक्कत करनी पड़ती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो इन व्यापारिक बैंकों द्वारा सीमा से बाहर का ऋण देने के बाद जनता से ऋणों की अदायगी की समस्या बनी रहती है। जो कि बैंकों की प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है।

5. उचित मार्गदर्शन की कमी -
भारतीय व्यापारिक बैंकों को रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया का उचित निर्देशन या मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो सका है। फलतः इनकी वांछित प्रगति नहीं हो सकी है।


6. भ्रष्टाचार की समस्या -
व्यापारिक बैंकों में ऊपर से नीचे तक के स्तरों पर भ्रष्टाचार व्याप्त होता जा रहा है। फलतः ग्राहकों को भ्रष्टाचार के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। 

7. ब्याज़ दर की अधिकता -
व्यापारिक बैंक अपनी जमाओं को बढ़ाने के लिए बैंक ब्याज़ दर में बढ़ोतरी करके आपस में प्रतियोगिता बढ़ा देते हैं। जिसका बैंकिंग विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

8. ग्रामीण शाखाओं का कार्य असंतोषजनक -
ग्रामीण इलाकों में व्यापारिक बैंकों की शाखाएँ अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं। जिस कारण ग्रामीण स्तर पर कार्य कर रही इन शाखाओं को आमदनी की तुलना में व्यय का अत्यधिक बोझ उठाना पड़ रहा है। इसके कुछ कारण भी होते हैं जैसे - (i) छोटे ऋण खातों की संख्या का अधिक होना, (ii) ऋणों पर रियायती ब्याज़ दरों का बहुतायत में होना, (iii) चालू जमा राशियों का अनुपात कम होना, (iv) ऋणों की वसूली करते वक्त समस्या होना आदि।

9. बैंकों की कार्यप्रणाली एवं नीतियों में विशेष परिवर्तन नहीं -
बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य, जनसामान्य तक इसका लाभ पहुँचाना था। किन्तु अभी तक इस दिशा में बैंकों को पूर्णतः सफलता नहीं मिल सकी है। अभी भी देखा जाए तो बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों का अधिकांश भाग बड़े उद्योगों एवं मध्यम आकार वाले उद्योगों को ही ज़्यादातर प्राप्त हो रहा है।

कृषि के क्षेत्र में भी बैंकों के ऋणों से छोटे एवं सीमांत कृषकों की तुलना में बड़े कृषकों को अधिक लाभ होता है। प्रायः यही देखने में आता है कि व्यापारिक बैंकों में सेवाओं का स्तर गिर गया है, अब इन बैंकों के कार्यों में अपेक्षाकृत विलम्ब होने लगा है। और बैंक कर्मचारियों का व्यवहार भी सहयोगपूर्ण नहीं रह गया है।

10. समन्वय का अभाव -
भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के दो महत्वपूर्ण अंग हैं- संगठित क्षेत्र तथा असंगठित क्षेत्र। जहां संगठित क्षेत्र के अंतर्गत व्यापारिक बैंक, सहकारी बैंक, विदेशी विनिमय बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक आदि आते हैं जबकि असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत देखा जाए तो महाजन, देशी बैंकर्स, साहूकार आदि आते हैं।

किन्तु इन दोनों ही क्षेत्रों में किसी भी प्रकार का सम्पर्क एवं परस्पर संबंध नहीं दिखाई देता है। इन दोनों ही क्षेत्रों में समन्वय के अभाव के कारण देश की मौद्रिक नीति एवं साख नियंत्रण के अन्य उपायों का प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो सकता है।


व्यापारिक बैंकों के दोषों को दूर करने हेतु उपाय (Vyaparik bankon ke doshon ko dur karne hetu upay)

भारतीय व्यापारिक बैंकों के दोषों को दूर करने हेतु सुझाव निम्नलिखित दिए जा सकते हैं -

1. बैंकिंग शाखाओं का विस्तार -
देश में बैंकिंग वातावरण को प्रोत्साहित करने के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या के आधार पर बैंक शाखाओं की स्थापना की जाये। ताकि व्यापारिक बैंकों का संतुलित विकास संभव हो। इसके लिए यह आवश्यक है कि इन बैंकों की शाखाएं पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्र में खोली जाए। आज भी देश के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां बैंकिंग शाखा न होने के कारण लोग बैंकिंग सुविधाओं का लाभ उठाने में असमर्थ हैं। कहीं बैंकिंग शाखाएं हैं भी तो ये शाखाएं जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त नहीं हैं। 

2. बैंकों का संतुलित विकास -
एक संतुलित बैंकिंग प्रणाली की स्थापना के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि नई बैंक शाखाओं अथवा नये बैंकों की स्थापना ऐसे क्षेत्रों में पहले की जानी चाहिये जहाँ पहले से कोई बैंक स्थापित ना हो। इस व्यवस्था से बैंकों के बीच आपसी प्रतियोगिता समाप्त होगी। साथ ही नये-नये स्थानों पर नये-नये ग्राहकों के बनने से बैंकिंग सुविधाओं का उचित विकास भी हो सकेगा।

3. विनियोग नीति में सुधार -
बैंकों द्वारा ऐसी संस्थाओं में अपने धन को निवेश बिल्कुल नहीं करना चाहिये, जिनमें केवल उनके संचालकों का ही व्यक्तिगत हित हो। बैंकों को यथा सम्भव सरकारी प्रतिभूतियों में ही अपने धन का निवेश करना चाहिये जिससे उनका धन सुरक्षित रहे और सम्पत्ति की तरलता भी बनी रहे। पूंजी की कमी को दूर करने के लिए बैंकों द्वारा जमा योजना को आकर्षक बनाने की भरसक कोशिश करनी चाहिए।


4. साख नीति का निर्धारण -
वाणिज्यिक यानि कि व्यापारिक बैंकों को अपनी एक ऐसी साख नीति का निर्धारण करना चाहिये जिसके तहत वे एक निश्चित सीमा तक ही जनता को ऋण दे सकें तथा आसानी से ऋणों की वसूली भी कर सकें। साथ ही ऋण के भुगतान समय पर न करने वालों के लिए भी कठोर ऋण शर्तों का निर्धारण किया जाना चाहिये।

5. जनता के विश्वास में वृद्धि -
सरकार द्वारा ऐसे प्रयास किये जाने चाहिये कि जिससे जनता का बैंकिंग व्यवस्था में विश्वास दृढ़ हो सके। यदि लोग अपनी छोटी-छोटी बचतों को भी बैंक में जमा करने लगेंगे तो निश्चित तौर पर बैंकों की स्थिति और भी सुदृढ़ होगी और बैंकिंग व्यवस्था के प्रति देश के नागरिकों में एक विश्वास का वातावरण दिखाई देने लगेगा।

6. बैंकों की कार्यकुशलता में वृद्धि -
वर्तमान में वाणिज्यिक बैंकों को निजी एवं विदेशी बैंकों से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। यदि वाणिज्यिक बैंकों को अपना विकास करना है तो उन्हें अपनी बैंकिंग कार्यकुशलता में वृद्धि करनी होगी। बैंकों की कार्य कुशलता में वृद्धि करने के लिए यह आवश्यक है कि इन बैंकों में प्रशिक्षित एवं कुशल कर्मचारियों की अनिवार्य रूप से नियुक्ति की जानी चाहिए। 

7. बैंकों का आधुनिकीकरण -
बैंकों की उन्नति और बैंकों के ग्राहकों की संख्या बढ़ाई जा सके। इसके लिए बैंकों को उनकी कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए आधुनिक यंत्रों का प्रयोग किया जाना चाहिए। तथा कम्प्यूटरीकरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि देश में बैंकिंग संबंधी शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था हो।


8. स्थानीय एवं प्रादेशिक भाषा का प्रयोग -
अधिकांशतः आपने देखा होगा कि व्यापारिक बैंकों में अधिकतर कार्य अंग्रेज़ी भाषा में ही किये जाते हैं, जिस कारण अंग्रेज़ी नहीं जानने वाले लोगों के लिए बैंकिंग सुविधाओं के प्रति आकर्षण कम हो जाता है। यदि बैंकों में स्थानीय अथवा प्रादेशिक भाषा को प्रोत्साहन दिया जाये तो न केवल लोगों का बैंकों के प्रति आकर्षण बढ़ेगा बल्कि इन बैंकों में ग्राहकों की संख्या में भी वृद्धि होगी।

9. छोटे बैंकों का एकीकरण -
देश में कई वाणिज्यिक बैंक ऐसे हैं जिनकी कार्यशील पूँजी कम है। यदि ऐसे कम कार्यशील पूंजी वाले बैंकों का एकीकरण कर दिया जाये तो इनमें आपसी प्रतियोगिता समाप्त हो जायेगी। परिणामस्वरूप इनकी कार्यशील पूंजी में भी बढ़ोत्तरी हो जाएगी। जिसका लाभ निश्चित तौर पर, जनता को बैंकिंग सुविधाओं के रूप में आसानी से मिल सकेगा।

10. राजनैतिक हस्तक्षेप पर लगाम -
भारत में बैंकिंग व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिये एक बैंकिंग विधान है जिसके प्रावधानों का कड़ाई से पालन होना चाहिये। प्रायः यह देखा जाता है कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा, बैंकों को अपनी सीमा से बाहर आकर कार्य करने के लिये विवश किया जाता है, जिस कारण बैंकिंग व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न होता है। अतः यह आवश्यक है कि बैंकों के कामकाज में राजनीतिज्ञ हस्तक्षेप ना किया जाए। इसके नियंत्रण के लिये कठोर नियम बनाये जाने चाहिए।

आपने इस अंक में व्यापारिक बैंकिंग में आने वाली कठिनाइयां क्या है? के बारे में से जाना। और साथ ही व्यापारिक बैंकिंग में सुधार हेतु सुझाव (vyaparik banking me sudhar hetu sujhav) का भी विस्तार से अध्ययन किया। अर्थशास्त्र संबंधी ऐसे ही अन्य टॉपिक्स के लिए बने रहिए studyboosting के साथ। और अपने सहपाठी दोस्तों को शेयर करते रहिए।


अन्य टॉपिक्स भी पढ़ें 👇
















Reactions

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ