भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग - परिभाषा, अर्थ, महत्व एवं समस्याएं (laghu evam kutir udyog - arth, mahatva evam samasyaen)
भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों (Small and Cottage Industries in hindi) का महत्वपूर्ण स्थान है। लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। प्रायः लघु एवं कुटीर उद्योग (laghu aur kutir udyog) को एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है। परन्तु इन दोनों में अंतर होता है।
कुटीर उद्योग (kutir udyog) प्रायः ग्रामीण एवं अर्द्ध- शहरी क्षेत्रों में स्थापित होते हैं। तथा अंशकालीन रोज़गार प्रदान करते हैं। इनमें निवेशित पूंजी व तकनीकी स्तर अपेक्षाकृत निम्न होता है तथा स्थानीय कच्चे माल व कुशलता का प्रयोग किया जाता है। यह उद्योग अधिकांशतः स्वयं मालिक द्वारा या अपने परिवार के सदस्यों की सहायता से चलाए जाते हैं।
लघु उद्योग (laghu udyog) में प्रायः शक्ति परिचालित मशीनों व आधुनिक उत्पादन विधियों का प्रयोग होता है। इनमें साधारणतया स्थायी रूप से पूरे समय के लिए कार्य किया जाता है। तथा बाहरी मज़दूरों को कार्य पर लगाया जाता है।
लघु एवं कुटीर उद्योग की परिभाषा (laghu evam kutir udyog ki paribhasha)
लघु उद्योग तथा कुटीर उद्योग सामान्यतया एक जैसे ही जान पड़ते हैं। इसलिए इनका एक साथ ही नाम लिया जाता है। किन्तु इन दोनों में ज़रा सा अंतर देखा जाता है। आइए हम इनकी परिभाषा से समझते हैं।
लघु उद्योग (small industry) - लघु उद्योग ऐसे उद्योग को कहा जाता है जिसमें विनिर्माण, उत्पादन और सेवाओं का प्रतिपादन छोटे पैमाने पर किया जाता है। इसमें निवेश की सीमा सामान्यतः 1 करोड़ से 5 करोड़ तक ही होती है।
कुटीर उद्योग (cottage industry) - कुटीर उद्योग ऐसे उद्योग को कहा जाता है जिसमें उत्पाद एवं सेवाओं का सृजन घर से ही किया जाता है। इसके लिए किसी कारखाने की आवश्यकता नहीं होती। इस उद्योग में कम पूंजी में ही, कुशल कारीगरों द्वारा अपने हाथों से ही वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।
• आर्थिक गतिहीनता किसे कहते हैं? भारत में आर्थिक गतिहीनता के क्या कारण रहे हैं?
लघु एवं कुटीर उद्योगों का महत्व (laghu evam kutir udyog ka mahatva)
भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों (bhartiya arthvyavastha me laghu evam kutir udyog) का महत्वपूर्ण स्थान है। लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भारत में लघु एवं कुटीर उद्योगों विशेषताएं (laghu evam kutir udyog ki visheshtayen) अथवा महत्व को निम्न तथ्यों से समझाया जा सकता है -
(1) रोज़गार में वृद्धि -
भारत में जनसंख्या की अधिकता के कारण बेरोज़गारी की समस्या व्यापक रूप में देखी जाती है। लघु एवं कुटीर उद्योग श्रम प्रधान होते हैं। जिस कारण इन उद्योगों से रोज़गार में पर्याप्त वृद्धि होती है।
2. कलात्मक वस्तुओं का निर्माण -
कुटीर उद्योगों में अधिकांश कार्य हाथों से ही किया जाता है जो कि कलात्मक होते हैं जैसे ऊनी, रेशमी वस्त्रों में कढ़ाई, कालीन व गलीचों का निर्माण, हाथी दांत का सामान आदि ऐसे कुटीर उद्योग हैं जिनसे काफ़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।
3. ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनुकूल -
भारत में लगभग 66.7% जनसंख्या कृषि पर निर्भर रहती है। जिसके चलते उनको पूरे वर्ष भर काम नहीं मिल पाता है। इसलिए लघु एवं कुटीर उद्योग ग्रामीण व्यवस्था के लिए अनुकूल होते हैं। दरअसल उद्योग ख़ाली समय में छोटे मोटे धंधे चलाकर ग्रामीण लोगों को काम भी देते हैं और कमाई भी करते हैं।
4. उद्योगों का विकेंद्रीकरण -
इन उद्योगों से देश में उद्योगों के विकेंद्रीकरण में सहायता मिलती है। बड़े उद्योग तो प्रायः एक ही स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। लेकिन लघु एवं कुटीर उद्योगों को गावों में भी स्थापित किया जा सकता है। इससे देश को निम्न लाभ प्राप्त होते हैं -
• लघु एवं कुटीर उद्योग प्रादेशिक असमानता कम करने में सहायक होते हैं।
• लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से स्थानीय साधनों का उचित प्रयोग हो जाता है।
• लघु एवं कुटीर उद्योगों में एक स्थान पर अपार भीड़ नहीं होती है।
• राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो यह लाभदायक साबित होता है।
(5) कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता -
कुटीर एवं लघु उद्योग की स्थापना में पूंजी के साथ-साथ कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है। साथ ही कर्मचारियों को भी प्रशिक्षण की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती। उन्हें थोड़ा सा प्रशिक्षित करके भी काम चलाया जा सकता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण लघु तथा कुटीर उद्योग (laghu tatha kutir udyog) अर्थव्यवस्था के लिए सर्वोत्तम माने जाते हैं।
(6) शीघ्र उत्पादक उद्योग -
लघु और कुटीर उद्योग (laghu aur kutir) को हम उत्पादक उद्योग भी कह सकते हैं। आशय यह है कि इन उद्योगों में विनियोग करने और उत्पादन करने के बीच ज़्यादा समयांतर नहीं होता है। इन्हें कम से कम समय में उत्पादन कर लाभ कमाया जा सकता है।
(7) निर्यात में सहायक -
ये उद्योग निर्यात को बढ़ावा देने में सहायक होते हैं। देश में उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के निर्यात की बात की जाए तो लघु एवं कुटीर उद्योगों का योगदान लगभग 25 से 30 प्रतिशत होता है।
(8) समान वितरण में सहायक -
धन के वितरण में समानता लाकर हमारे ये लघु एवं कुटीर उद्योग, देश के लक्ष्य एवं समाजवादी ढांचे का निर्माण करने में अभूतपूर्व भूमिका निभाते हैं। चूंकि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सिर्फ़ उत्पादन में वृद्धि ही नहीं अपितु अमीरी और गरीबी के अंतर को कम करना भी आवश्यक होता है। इसीलिए लघु व कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता चाहिए क्योंकि बड़े उद्योगों को स्थापित करने के लिए कुछ ही लोगों के पास पर्याप्त धन होता है। शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने हमेशा ही लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर ज़ोर दिया।
लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याएं (laghu evam kutir udyogon ki samasyaen)
हम सभी जानते हैं कि प्राचीन काल में इन्हीं लघु एवं कुटीर उद्योगों की गौरवपूर्ण स्थिति का प्रतिफल ही था कि भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। किन्तु ब्रिटिश शासन के चलते इन सारी व्यवस्थाओं को बूरी तरह कुचल दिया गया। हालांकि भारत अब इन्हीं उद्योगों के विकास हेतु पुनः प्रयत्नशील है। किन्तु इनके विकास में कुछ कठिनाइयां हैं जो निम्नलिखित हैं -
(1) कच्चे माल की समस्या - आज के समय में लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए उचित मूल्यों पर कच्चा माल उपलब्ध होने की समस्या बनी रहती है। ये समस्याएं भी तीन प्रकार की हैं। पहली यह कि इन लघु इकाइयों द्वारा सीमित मात्रा में कच्चा माल ख़रीदने के कारण मूल्य अधिक देना पड़ता है। दूसरी यह कि मजबूरी में कम मात्रा में कच्चा माल ख़रीदने से अच्छी क़िस्म नहीं मिल पाती है। तीसरी यह है कि आयातित कच्चे माल के संबंध में लघु उद्योगों के समक्ष अनेक कठिनाई बनी रहती है।
(2) विपणन की समस्या - कुटीर व लघु उद्योगों की अपनी दुकानें न होने के कारण उन्हें अपनी वस्तुएं बेचने में बड़ी कठिनाई होती है। मजबूरन इन्हें अपना माल बेचने के लिए बिचौलियों पर आश्रित होना पड़ता है। जिस कारण इन्हें उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। और तो और इनके पास विज्ञापन के साधन भी सीमित होते हैं। बड़े बड़े उद्योगों में होने वाली प्रतियोगिता के बीच इन्हें अपनी वस्तुओं को बेचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
(3) तकनीक की समस्या - कुटीर व लघु उद्योगों की एक विशिष्ट समस्या होती है और वह है तकनीकी समस्या। आज भी अनेक छोटे-मोटे उद्योग अपनी परंपरागत तकनीक से ही उत्पादन कर रहे हैं जिस कारण उन्हें लागत भी अधिक लगती है और फ़िर उत्पादित वस्तुओं को बेचने में भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
(4) कुशल प्रबंधन का अभाव - इन छोटे उद्योगों को चलाने में कुशल प्रबंधन की आवश्यकता होती है। जिसके अभाव में ये छोटे उद्योग बेहतर लाभ से वंचित रह जाते हैं। या पर्याप्त लाभ कमाने के बजाय घाटे में चले जाते हैं।
(5) बड़े उद्योगों से प्रतियोगिता - प्रायः यह देखा जाता है कि बड़े उद्योगों द्वारा निर्मित माल अपेक्षाकृत सस्ता और अच्छी क़िस्म का होता है। जिसके कारण लघु एवं कुटीर उद्योगों को इनके बीच क़ीमत की प्रतियोगिता में हानि उठानी पड़ती है।
(6) वित्त की समस्या - स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लघु व कुटीर उद्योगों में आने वाली समस्याओं में कुछ हद तक सुधार तो हुए हैं। किन्तु आज भी लघु और कुटीर उद्योग धंधों को व्यापारिक बैंक से ऋण लेने में अनेक वैधानिक अड़चनों का सामना करना पड़ता है। यही कारण है कि इन उद्योगों के स्वामी कई बार साहुकारों के चंगुल में फंस जाते हैं।
(7) अकुशल कारीगरों की समस्या - लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए कुशल श्रमिकों या कारीगरों की समस्या आम बात होती है। क्योंकि इन छोटे उद्योगों में काम कर रहे श्रमिकों को अपेक्षाकृत कम मज़दूरी दी जाती है। जिससे इन कारीगरों के बेहतर जीवन निर्वाह की समस्या बनी रहती है। परिणास्वरूप इतने कम मज़दूरी दर पर अच्छे कारीगरों (श्रमिकों) का मिलना कठिन हो जाता है। जिसका सीधा प्रभाव इन छोटे उद्योगों के उत्पादन पर पड़ता है।
(8) सूचनाओं एवं परामर्शों का अभाव - इन उद्योगों को अपने व्यवसाय से संबंधित सूचनाएं उचित समय पर नहीं मिल पाती हैं। साथ ही इनको उचित परामर्श देने वाली संस्थाएं भी कम हैं। इन दोनों बातों के अभाव में ये उद्योग पर्याप्त उन्नति कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
सही मायने में देखा जाए तो लघु एवं कुटीर उद्योग (laghu evam kutir udyog) ही देश के विकास के लिए रीड की हड्डी का काम करते हैं। यदि देश की सरकार, लघु एवं कुटीर उद्योगों में आने वाली इन कठिनाइयों से निजात पाने का प्रयास पूरी निष्ठा और क्षमता के साथ करे। तो देश की अर्थव्यवस्था में एक नया मोड़ आ सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारा देश इन्हीं आधारभूत उद्योगों के ज़रिए अपनी प्राचीन उपलब्धियों को पुनः हासिल करने में सक्षम हो सकता है।
संक्षेप में कहा जाए तो भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग (bharat me laghu evam kutir udyog) एक ऐसा मूलमंत्र है जिसके माध्यम से भारत अपनी अर्थव्यवस्था को अपार सफलता के चरम तक पहुंचा सकता है। भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा को देखते हुए हम यही कह सकते हैं कि इन उद्योगों का विकास एवं विस्तार करना उतना ही आवश्यक है जितना कि देश में बड़े उद्योगों का विकास करना।
लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से, कम से कम साधनों की सहायता से छोटे से छोटे वर्गों के जीवन स्तर को बेहतर बनाया जा सकता है। चूंकि भारत का ह्रदय गावों में केन्द्रित है। इसलिए सर्वनिर्माण के लिए ग्रामीण उद्योगों का विकास एवं विस्तार करना अनिवार्य हो जाता है। इससे कृषि पर जनसंख्या के दबाव को रोका जा सकता है। साथ ही अन्य विकसित राष्ट्रों की भांति प्रगतिशील अवस्था में पहुंचा जा सकता है।
इस अंक में आपने जाना कि लघु एवं कुटीर उद्योग क्या है (laghu evam kutir udyog kya hai?) भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग (bharat me laghu evam kutir udyog) को जानते हुए लघु एवं कुटीर उद्योग का महत्व (laghu evam kutir udyog ka mahatva) क्या है यह भी जाना। साथ ही अंत में भारत में लघु एवं कुटीर उद्योगों की मुख्य समस्याएं क्या हैं (bharat me laghu evam kutir udyogon ki mukhya samasyaen kya hain?) विस्तार से जाना। उम्मीद है यह अंक आपके अध्ययन में अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा।
अन्य टॉपिक्स भी पढ़ें 👇
• अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याओं की विवेचना कीजिये। What are the central problems of the economy?
• माँग की लोच किसे कहते हैं? माँग की लोच का महत्व। माँग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्वों को बताइए।
Tags
अर्थशास्त्र