स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था का स्तर | Status of Indian Economy on the Eve of Independence in hindi

आप सभी जानते हैं कि ब्रिटिश शासन से पूर्व की भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च कोटि की हुआ करती थी। भारत एक कृषि प्रधान तथा औद्योगिक देश हुआ करता था। उस समय देश का आंतरिक व्यापार, हस्तशिल्प, आयात-निर्यात में भारत की बेहतर स्थिति थी। भारत के पास निर्यात करने के लिए बहुत कुछ था जैसे- सूती कपड़े, रूई, जूट, नील, लाख, चावल, हीरे मोती, रेशमी कपड़े आदि। व्यापार के मामले में अधिकांश देश भारत पर निर्भर थे। 




लेकिन अंग्रेज़ों के 200 साल तक व्यापार और शासन करते रहने के बाद स्थिति लगातार ख़राब होती चली गई। और यहां तक कि 15 अगस्त सन् 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था (swatantrata prapti ke samay bhartiya arthvyavastha) एक अर्द्ध विकसित, अर्द्ध सामंती, पिछड़ी हुई, गतिहीन, निर्धन, उद्योग विहीन तथा विभाजित बनकर रह गई थी। आइए हम ब्रिटिश शासन के अंत में भारतीय अर्थव्यवस्था (british shasan ke ant me bhartiya arthvyavastha) कैसी थी? विस्तार से जानते हैं।



स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति (Svatantrata prapti ke samay bhartiya arthvyavastha ki sthiti)

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएं (swatantrata prapti ke samay bhartiya arthvyavastha ki visheshtayen) निम्नलिखित थीं -

(1) गतिहीन अर्थव्यवस्था -
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक गतिहीन अर्थव्यवस्था थी। हिक्स, मुखर्जी तथा घोष के अनुसार सन् 1860 से 1945 तक भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर केवल 0.5% तथा सन 1925 से 1950 तक 0.1% थी। इसी गतिहीनता के कारण भारत की अधिकांश जनसंख्या निर्धन रह गई थीं। इनका जीवन स्तर बहुत नीचा था। ये लगातार गरीबी, भुखमरी और बीमारी से पीड़ित थीं। वैसे इस आर्थिक गतिहीनता के लिए कई बातें ज़िम्मेदार थीं जैसे - औपनिवेशिक शोषण, सामंतवाद प्रणाली और पिछड़ी हुई कृषि जो कि प्रमुख रूप से उद्योगों पर निर्भर रह गई थीं।

(2) पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था -
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था थी। सन् 1947-48 में भारत की प्रति व्यक्ति आय ₹230 के लगभग थी। देश की लगभग 68 से 72% जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी। अपने रहन सहन के लिए ज़रूरी चीज़ों को कृषि या उससे संबंधित व्यवसायों से अर्जित करते थे। तबाह हो चुके काश्तकारों के पास भी कृषि के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था।
 
अत्यधिक गरीबी, अपर्याप्त तथा असंतुलित भोजन, निम्न आय, कपड़ों एवं आवास की समस्या, वर्ग एवं जाति के नाम पर अत्याचार, बेरोज़गारी तथा अल्प रोज़गार, लगान तथा कर्ज का बोझ, अकाल, बाढ़ एवं सूखे की मार, खाद्य पदार्थों की सीमितता आदि की समस्या पूरे देश में दिखाई दे रही थी। जो कि पिछड़ी अर्थव्यवस्था के लक्षण माने जाते हैं।


(3) जनसंख्या की समस्या -
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की लगभग 83% जनसंख्या अशिक्षित थी। साथ ही जनसंख्या वृद्धि दर 40 हज़ार प्रतिवर्ष हो गई थी। हालांकि स्वतंत्रता से पूर्व जनसंख्या में यह वृद्धि दर, वर्तमान समय की वृद्धि दर से काफ़ी कम थी। परन्तु इसका मुख्य कारण मृत्यु दर का अधिक होना था। जहां मृत्यु दर का अधिक होना देश के पिछड़ेपन तथा निर्धनता का सूचक माना जाता है। जनसंख्या की औसत आयु 31 वर्ष थी। शहरों और गांवों में रहने वाली जनसंख्या की बात करें तो लगभग 14% जनसंख्या शहरों तथा 86% जनसंख्या गांवों में रहती थी। संख्यात्मक रूप से देखें तो भारत की जनसंख्या विश्व में दूसरे स्थान पर थी, परन्तु गुणात्मक रूप से विश्व की सबसे निर्धनतम जनसंख्या में से एक थी।

(4) अर्ध सामंती अर्थव्यवस्था -
ब्रिटिश शासन ने भूमि के स्वामित्व के अधिकार को ज़मीदारों को सौंप दिया। जिस कारण ये ज़मीदार काश्तकारों से बड़ी मात्रा में लगान वसूल रहे थे। बढ़ती जनसंख्या के कारण भूमि पर दबाव बढ़ता गया और लगान की क़ीमत भी लगातार बढ़ती गई। ज़मीदारों और पूंजीपतियों के कृषि क्षेत्र में उतरने के कारण श्रमिकों की बंधुआ मज़दूरी का प्रचलन आगे बढ़ा। श्रमिकों की लगातार ऋणग्रस्तता ने उन्हें जीवनपर्यंत सेवक बना दिया था। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में अर्ध सामंती अर्थव्यवस्था अथवा सामंतवाद का वर्चस्व स्थापित हो गया था।

(5) औद्योगिक पिछड़ापन -
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय में औद्योगिक क्षेत्र में भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यधिक पिछड़ी हुई थी। देश में आधारभूत और भारी उद्योगों का अभाव था। भारी उद्योगों में मुख्य रूप से टाटा का लोहा तथा इस्पात उद्योग था। देश में मशीनों का निर्माण ना के बराबर था। देश में कुछ उपभोक्ता उद्योग, जैसे - सूती कपड़ा उद्योग, जूट उद्योग, चीनी उद्योग मुख्य उद्योगों में शामिल थे। तुलनात्मक रूप से देख जाए तो देश में उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन भी बहुत कम होता था। लघु तथा कुटीर उद्योग भी बहुत ज़्यादा पिछड़ गए थे। इसका कारण था यह था कि भारतीय उद्योगों पर अधिकतर अंग्रेज़ों का स्वामित्व था। देश के अधिकांश उद्योग अपने पूंजीगत पदार्थों और मशीनों के लिए इंग्लैंड पर निर्भर रहते थे। अधिकतर कारखानों की मशीनें बहुत पुरानी और ख़राब हो चुकी थीं। बड़े उद्योगों का प्रबंधन अंग्रेज़ों के हाथों में ही था।

(6) पूंजी निर्माण की कम दर -
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में पूंजी निर्माण की दर बहुत कम थी। जो कि स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या तक भी न बढ़ सकी। उस समय पूंजी निर्माण की दर शुद्ध घरेलू उत्पाद की 6.8% थी। बचत की दर 7% थी तथा विदेशों से ऋण 0.2% था। पूंजी निर्माण में जहां लगभग 20% योगदान सार्वजनिक क्षेत्र का था तो वहीं लगभग 80% योगदान निजी क्षेत्र था। निजी क्षेत्र के योगदान में घरेलू क्षेत्र का 50% था। तथा निजी व्यावसायिक क्षेत्र का भाग 22% था।


(7) विदेशी व्यापार की सीमितता -
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत का विदेशी व्यापार कुछ विशेष नहीं था। विदेशी व्यापार बहुत कम वस्तुओं में होता था। भारत से कच्चे माल और कृषि वस्तुओं का निर्यात अधिक किया जाता था। भारत द्वारा विदेशों को सूती वस्त्र, कपास, अनाज, जूट की वस्तुएं, चाय और तिलहन का निर्यात प्रमुख रूप से किया जाता था। तथा विदेशों से अधिकांश उपभोग के लिए तैयार वस्तुएं जैसे - मशीनें, रासायनिक पदार्थ तथा लोहे और इस्पात की वस्तुएं आयात की जाती थीं। 

स्वतंत्रता के पूर्व हमारे निर्यात, आयात से अधिक थे अर्थात हमारा व्यापार शेष हमारे अनुकूल था। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति तक व्यापार शेष की अनुकूलता में कमी आ गई थी। निर्यात से अधिक हमारे आयात होने लगे थे। इसका कारण था भारत के से ही कच्चे माल को निर्यात कर, उन्हीं कच्चे माल से उत्पाद निर्मित कर वापस भारत में आयात किया जा रहा था। जिससे भारत के उद्योगों की दशा दयनीय होने लगी थी।

(8) मुद्रा स्फीति का होना -
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में क़ीमतों का बढ़ना जारी था। भारत में मुद्रा स्फीति का एक प्रमुख कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा देश में युद्ध सामग्री ख़रीदने के लिए करेंसी की मात्रा में वृद्धि करना था। सन 1942-43 में ₹644 करोड़ के नोट चलन में थे जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय चलन में इन्हीं नोटों की संख्या बढ़कर ₹1319 करोड़ हो गई थी। मुद्रा स्फीति का दूसरा कारण सरकार के राजस्व खाते के व्यय में होने वाली वृद्धि थी। क्योंकि सन 1943-44 में केंद्रीय तथा राज्य सरकारों द्वारा कुल व्यय ₹594 करोड़ था। लेकिन सन 1947-48 यही राजस्व व्यय बढ़कर ₹754 करोड़ हो गया।

उपरोक्त विश्लेषणों से हम स्पष्ट तौर पर कह सकते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था (swatantrata prapti ke samay bhartiya arthvyavastha) अत्यंत पिछड़ी हुई, निचले स्तर पर उद्योग और निर्धनता से भरी हुई थी। उम्मीद है यह अंक आपके अध्ययन में अवश्य मददगार साबित हुआ होगा।

 
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