अल्पाधिकार से क्या आशय है? अल्पाधिकार के प्रकार एवं प्रमुख विशेषताएं बताइए।

अल्पाधिकार बाज़ार क्या है, अल्पाधिकार बाज़ार की विशेषताएं, अल्पाधिकार के प्रकार, (Alpadhikar ke prakar, Alpadhikar ki visheshtayein, Alpadhikar ka kya abhipray hai?)



जब किसी वस्तु की कुल पूर्ति पर गीनी चुनी कुछ बड़ी फर्मों का अधिकार होता है। तब इसे अल्पाधिकार ( Oligopoly) कहा जाता है। इस स्थिति में विक्रेता बहुत कम होते हैं। बहुत कम विक्रेता होने के कारण ही वे वस्तु की पूर्ति तथा क़ीमत पर पूरा प्रभाव डालते हैं।

दरअसल एक विक्रेता की नीति का प्रभाव दूसरे विक्रेता पर भी पड़ता है इसलिए सभी विक्रेता आपस में क़ीमतों तथा उत्पादन के संबंध में आपसी तालमेल बना लेते हैं।

इस अंक में हम बाज़ार के अन्तर्गत अल्पाधिकार क्या है (alpadhikar kya hai?) विस्तार से जानेंगे। आइए हम अल्पाधिकार (Oligopoly in hindi) को और विस्तार से समझते हुए इसकी कुछ परिभाषाएं भी जानते हैं।



अल्पाधिकार किसे कहते हैं? (Alpadhikar kise kahate hain?) 

अल्पाधिकार बाज़ार की ऐसी अवस्था को कहा जाता है जिसमें किसी वस्तु के बहुत कम विक्रेता होते हैं जहां प्रत्येक विक्रेता पूर्ति एवं मूल्य पर अपना पूरा प्रभाव रखता है। अल्पाधिकार, अपूर्ण प्रतियोगिता का एक रूप है। अन्य शब्दों में, जब एक वस्तु के दो दो से अधिक (बहुत अधिक नहीं) उत्पादक या विक्रेता हों तो अल्पाधिकार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

भारत में ऐसी कुछ कंपनियां (उद्योग) हैं जिन्हें अल्पाधिकार के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इन उद्योगों में टाटा स्टील कम्पनी, हिन्दुस्तान स्टील लिमिडेट, मैसूर स्टील कम्पनी तथा बोकारो स्टील कम्पनी आदि को शामिल किया जा सकता है। 

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “अल्पाधिकार, एकाधिकार तथा पूर्ण प्रतियोगिता के मध्य की स्थिति कहीं जाती है। जिसमें विक्रेताओं की संख्या एक से अधिक तो होती है, किन्तु इतनी बड़ी भी नहीं होती है कि उनकी बाज़ार क़ीमतों से बाज़ार पर प्रभाव नगण्य माना जा सके।"

मेयर्स के अनुसार, “बाज़ार की ऐसी अवस्था को अल्पाधिकार कहा जाता है जहाँ विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता अपनी पूर्ति से बाज़ार की क़ीमत को प्रभावित कर सकता है। तथा यह बात प्रत्येक विक्रेता जानता है।"

लेक्टविच के अनुसार, "बाज़ार की ऐसी दशाएं अल्पाधिकार कहलाती हैं जहां विक्रेता इतनी कम संख्याएं पाए जाते हैं कि एक की क्रियाएं दूसरे के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं।"


अल्पाधिकार के प्रकार (Alpadhikar ke prakar) 

अल्पाधिकार के प्रकार कहें या अल्पाधिकार के रूप (alpadhikar ke roop), ये प्रमुखतः निम्न रूप में हो सकते हैं - 

(1) विशुद्ध अल्पाधिकार (Pure Oligopoly)

विशुद्ध अल्पाधिकार किसी बाज़ार की वह दशा होती है जिसमें सभी फर्में आपस में मिलकर लगभग एक समान वस्तु का उत्पादन तथा विक्रय करती हैं। विशुद्ध अल्पाधिकार में ग़ैर क़ीमत प्रतियोगिता नहीं पाई जाती।

(2) विभेद अल्पाधिकार (Differentiated Oligopoly) 

जब अलग-अलग फर्में अलग-अलग वस्तुओं का उत्पादन करती हैं, तब उसे विभेद अल्पाधिकार अथवा विभेदात्मक अल्पाधिकार (vibhedatmak alpadhikar) कहा जाता है। वस्तुओं का यह वास्तविक या काल्पनिक आधार पर हो सकता है। वास्तविक विभेद वस्तु के गुण, आकार, डिज़ाइन आदि पर आधारित होता है तथा काल्पनिक विभेद ट्रेडमार्क, ब्रांड के नामों के कारण होता है।


(3) सामूहिक अल्पाधिकार (Collective Oligopoly)

जब विभिन्न फर्में आपस में वस्तु के उत्पादन, वस्तु की क़ीमत, वस्तु के बाज़ार आदि के बारे में समझौते की नीति अपना लेती हैं तब उसे सामूहिक अल्पाधिकार (samuhik alpadhikar) अथवा गठबंधन युक्त अल्पाधिकार कहा जाता है। इसे सरल भाषा में कहें तो गठबंधन अल्पाधिकार वह होता है जिसमें किसी उद्योग में लगी सभी फर्में किसी औपचारिक अथवा अनौपचारिक समझौते के अन्तर्गत अपना कोई संघ बना लेती हैं।

यह गठबंधन दो प्रकार का हो सकता है। (१) पूर्ण गठबंधन तथा (२) अपूर्ण गठबंधन। पूर्ण गठबंधन के अन्तर्गत किसी केंद्रीय कार्टेल की स्थापना कर दी जाती है या बाज़ार सहभागियों द्वारा कार्टेल व्यवस्था अपनायी जाती है। 
जबकि अपूर्ण गठबंधन के अन्तर्गत उद्योग में लगी सभी फर्में किसी बड़ी फर्म अथवा प्रधान फर्म द्वारा निर्धारित की गई क़ीमत को स्वीकार करते हुए उसका अनुसरण करती है।
 

(4) आंशिक अल्पाधिकार (Partial Oligopoly)

जब फर्मों की आपस में पारस्परिक निर्भरता आंशिक होती है, तब ऐसी स्थिति को आंशिक अल्पाधिकार (anshik alpadhikar) कहा जाता है।

(5) पूर्ण अल्पाधिकार (Complete Oligopoly)

जब अलग-अलग फर्मों के द्वारा वस्तु के उत्पादन तथा बिक्री के लिए अलग-अलग नीति अपनायी जाती है, तो उसे पूर्ण अल्पाधिकार (purn alpadhikar) कहा जाता है। इसे स्वतंत्र अल्पाधिकार (svatantra alpadhikar) भी कहा जाता है। यह वह दशा होती है जिसमें किसी उद्योग में लगी सभी फर्में वस्तु के उत्पादन अथवा मूल्य निर्धारण में स्वतंत्र होती है। उनका आपस में कोई समझौता नहीं होता है। उन फर्मों में आपसी और कड़ी प्रतिस्पर्धा होती है।



अल्पाधिकार की विशेषताएँ (Characteristics of Oligopoly in hindi)

अल्पाधिकार की प्रमुख विशेषताएँ (alpadhikar ki pramukh visheshtayein) निम्नलिखित हैं - 

(1) विक्रेताओं की कम संख्या - 
अल्पाधिकार बाज़ार में विक्रेताओं की संख्या कम होती है जिसके कारण प्रत्येक विक्रेता का पूर्ति के एक बड़े भाग पर नियंत्रण रहता है। फलतः वह वस्तु की क़ीमत को पूर्णतः प्रभावित कर सकता है। इसके साथ ही एक विक्रेता की क्रियाओं या नीतियों का प्रभाव दूसरे प्रतियोगी विक्रेताओं पर पड़ता है।

(2) विक्रेताओं की पारस्परिक निर्भरता -
अल्पाधिकार प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्में वस्तुओं की पूर्ति तथा क़ीमतों के मामले में एक दूसरे पर निर्भर होती हैं। क्योंकि एक फर्म की क्रियाओं तथा नीतियों का प्रभाव निश्चित रूप से दूसरी फर्मों पर भी पड़ता है।

(3) समरूप अथवा विभेदित वस्तुएं -
अल्पाधिकार प्रतियोगिता में फर्में या तो समरूप वस्तुओं का उत्पादन करती हैं या विभेदात्मक वस्तुओं का। यदि सभी फर्में समरूप वस्तुओं का उत्पादन करती हैं तब उस स्थिति को विशुद्ध अल्पाधिकार कहा जाता है। जबकि यदि फर्में अलग अलग वस्तुओं का उत्पादन करती हैं तब उस स्थिति को विभेदात्मक अल्पाधिकार कहा जाता है।

(4) फर्मों का प्रवेश तथा बहिर्गमन कठिन होना -
अल्पाधिकार प्रतियोगिता में नई फर्मों के प्रवेश पर नियंत्रण होता है क्योंकि पुरानी फर्में पहले से ही बाज़ार में अपनी साख बना चुकी होती हैं। इनके कच्चे माल की पूर्ति आदि पर नियंत्रण होता है। इनके ट्रेडमार्क सुरक्षित हो जाते हैं। चूंकि पुरानी फर्मों को अपनी साख बनाने के लिए काफ़ी मात्रा में विनियोग करना पड़ता है। बड़ी मेहनत के बाद पुरानी फर्में अपनी वस्तु को पेटेंट द्वारा सुरक्षित करती हैं अर्थात वह एक बड़े विनियोग के साथ अपना ट्रेडमार्क सुरक्षित कर पाती हैं। जिस कारण पुरानी फर्मों का उद्योग से बहिर्गमन भी कठिन होता है।



(5) क़ीमत में स्थिरता होना -
पारस्परिक निर्भरता के कारण ही अल्पाधिकारी बाज़ार में फर्मों की यह प्रबल प्रवृत्ति होती है कि क़ीमतों को स्थिर रखा जाए। क्योंकि यदि कोई भी एक फर्म अपने फ़ायदे के लिए क़ीमत घटाती है तब बाज़ार के ग्राहक तथा प्रतियोगी फर्मों के ग्राहक आकर्षित होकर इसी फर्म से माल ख़रीदना शुरू कर देंगे। जिस कारण मजबूर होकर दूसरी फर्मों को भी क़ीमत घटानी पड़ेगी। फलतः उनके बीच क़ीमत युद्ध (Price War) छिड़ जाएगा। सभी फर्मों को हानि होगी। इसलिए अल्पाधिकार प्रतियोगिता सभी फर्में आपस में समझौता कर लेते हैं।

(6) मांग वक्र की अनिश्चितता -
अल्पाधिकार प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्मों में आपसी निर्भरता होती है जिसके कारण फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग अनिश्चित रहती है। कोई भी फर्म वस्तु की माँग का सही-सही अनुमान नहीं लगा पाती है। अन्य फर्मों के व्यवहार पर नियंत्रण न होने के कारण किसी भी फर्म का मांग वक्र निश्चित नहीं होता है। दरअसल अन्य फर्मों के स्वतंत्र होने के कारण वे अपने व्यवहार से फर्म के मांग वक्र को प्रभावित करती हैं। अतः फर्म का निश्चित मांग वक्र खींचना कठिन होता है।

(7) विज्ञापन तथा विक्रय लागतों का महत्व -
अल्पाधिकार के अन्तर्गत प्रत्येक फर्म अपनी-अपनी वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए विज्ञापन, प्रचार आदि में अधिक से अधिक व्यय करती है। फर्मों की परस्पर निर्भरता के कारण ही प्रत्येक फर्म को बाज़ार में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए इस तरह की विक्रय लागतें वहन करनी पड़ती है। जो फर्म अपने प्रोडक्ट का प्रचार, विज्ञापन जितना ज़्यादा अच्छा करती है। ग्राहक उतनी ही ज़्यादा संख्या में उस फर्म से आकर्षित होकर उसी फर्म से माल ख़रीदना प्रारंभ कर देते हैं। 

(8) एकाधिकारी तत्व का होना -
अल्पाधिकार फर्म में एकाधिकारी तत्व अधिकांशतः दिखाई देता है। अल्पाधिकार के अन्तर्गत फर्मों के द्वारा विभेदीकृत वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक फर्म का वस्तु के उत्पादन तथा बाज़ार पर बहुत बड़ा अधिकार भी होता है। इसलिए प्रत्येक फर्म अपने क्षेत्र में एकाधिकारी जैसा कार्य एवं व्यवहार करती दिखाई देती है।

उम्मीद है हमारे इस अंक से आप अल्पाधिकार बाज़ार क्या है? इसकी विशेषताएं क्या हैं (Alpadhikar bajar kya hai, iski visheshtayein kya hain?) भलीभांति जान चुके होंगे। हमें आशा है यह एक आपके अध्ययन में अवश्य ही सहायक साबित होगा।


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