आय व रोज़गार का परंपरावादी सिद्धांत क्या है? | Classical theory of income and employment in hindi

आय व रोज़गार का परंपरावादी सिद्धांत - अर्थ, परिभाषा, परंपरावादी सिद्धांत की मान्यताएं, परंपरावादी सिद्धांत की आलोचनाएं

रोज़गार के परंपरावादी सिद्धांत के अनुसार दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता तथा पूंजीवाद अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोज़गार की स्थिति स्वतः ही स्थापित होती है। तथा यह स्थिति बाज़ार शक्तियों अर्थात मांग एवं पूर्ति के स्वतः समायोजन द्वारा बनी रहती है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस सिद्धांत के अनुसार अर्थव्यवस्था कि प्रवृत्ति स्वतः ही पूर्ण रोज़गार की तरफ़ जाने की होती है।



सरकार को रोज़गार बढ़ाने के लिए किसी प्रकार का विशेष प्रयास या हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं होती है। इसके लिए अर्थव्यवस्था में एक दशा होना आवश्यक है कि साधन तथा वस्तु की क़ीमत में परिवर्तनशीलता या लोचशीलता होना आवश्यक है। 


परंपरावादी सिद्धांत का अर्थ, परिभाषा (Paramparavadi siddhant ka arth, paribhasha)

आय व रोज़गार के बारे में परंपरावादी अर्थशास्त्रियों ने अपने जो विचार प्रकट किए हैं, उसे ही रोज़गार का परंपरावादी सिद्धांत (rojgar ka paramparavadi siddhant) कहा जाता हैं। परंपरावादी अर्थशास्त्रियों में डेविड रिकार्डो, जे. एस. मिल, जे. बी. से. मार्शल, पीगू आदि को शामिल किया जाता है।

इनके द्वारा दिया गया आय व रोज़गार का परंपरावादी सिद्धांत (aay v rojgar ka paramparavadi siddhant) एक ऐसा सिद्धांत है जिसके अन्तर्गत यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोज़गार की स्थिति स्वतः ही निर्मित हो जाती है। इसके लिए सरकार को किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना होता है। यह स्थिति बाज़ार में मांग एवं पूर्ति के स्वतः ही समायोजन द्वारा बन जाती है।

रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत के अनुसार पूर्ण रोज़गार एक ऐसी स्थिति है जिसमें उन सब लोगों को रोज़गार मिल जाता है जो प्रचलित मज़दूरी पर काम करने को तैयार हैं। यह अर्थव्यवस्था की एक ऐसी स्थिति है जिसमें अनैच्छिक बेरोज़गारी नहीं पाई जाती।


रोज़गार के परंपरावादी सिद्धांत की मान्यताएं (Assumption of classical theory in hindi)

आय व रोज़गार के परंपरावादी सिद्धांत की मान्यताएं (विशेषताएं) निम्नलिखित हैं -

1. यह पूर्ण रोज़गार की मान्यता पर आधारित है।
2. यह दीर्घकालीन दृष्टिकोण पर आधारित है।
3. यह स्वतंत्र अर्थव्यवस्था का समर्थक है।
4. यह बचत से प्रारम्भ करके निवेश पर आता है।
5. यह केवल विशिष्ट स्थितियों पर ही लागू होता है।
6. अर्थव्यवस्था में बिना मुद्रा प्रसार के पूर्ण रोज़गार की स्थिति रहती है।
7. अर्थव्यवस्था में कोई सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता।
8. वास्तु और साधन बाज़ार दोनों में पर प्रतियोगिता होती है।
9. मज़दूरी एवं कीमतें लोचपूर्ण होती हैं।
10. समाज द्वारा अर्जित सम्पूर्ण आय को उपभोग में व्यय किया जाता है।

यह भी मान्यता है कि अर्थव्यवस्था एक बन्द अर्थव्यवस्था है। इस पर विदेशी व्यापार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।


परम्परावादी सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of the Classical theory in hindi)

जे. एम. केन्स ने परम्परावादी सिद्धान्त की कटु आलोचना की है। दरअसल तीसा की महान मन्दी के समय उत्पन्न बेरोज़गारी एवं अति उत्पादन की समस्याओं का यह सिद्धान्त कोई हल न दे सका। अतः लोगों का इस पर से विश्वास उठ गया। इस सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं -

(1) रोज़गार का परम्परावादी सिद्धान्त पूर्ण रोज़गार की मान्यता पर आधारित है जो कि वास्तविक जगत में संभव ही नहीं है। 
(2) पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न कर लेती है। यह मान्यता सही नहीं है। क्योंकि बाज़ार में मांग और पूर्ति का समान होना असंभव है।
(3) इस सिद्धान्त के अनुसार, समाज द्वारा अर्जित सम्पूर्ण आय को उपभोग में व्यय कर देना वास्तव में संभव नहीं है। बल्कि बचत के कारण मांग में कमी होती है।
(4) बचत एवं विनियोग ब्याज़ दर द्वारा नहीं लाया जा सकता है। बल्कि आय  स्तर द्वारा लाया जा सकता है
(5) मुद्रा की माँग केवल विनिमय के लिए ही नहीं की जाती है। मुद्रा की माँग का उद्देश्य सट्टा तथा दूरदर्शिता भी है। अतः यह उत्पादन व रोज़गार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
(6) यह सिद्धान्त दीर्घकालीन दृष्टिकोण पर आधारित है अतः अल्पकालीन समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ है।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि आय व रोज़गार के बारे में परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के विचार सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों हो दृष्टियों से ग़लत थे।


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